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जीवाभिगमसूत्रे काम् । 'निठुरं' निष्ठुराम्-अशक्यप्रतीकाराम् । 'चडं' चण्डाम् रौद्राध्यवसाय. हेतुत्वात् रुद्राम् 'तिव्वं' तीव्राम्-अतिशायिनीम् दुक्खं' दुःखाम् दुःखरूपाम् दुग्ग' दुर्गाम्-दुर्लध्याम् अतएव 'दुरहियासं' दुरधिसह्याम्-दुःखेन सोढुं योग्याम् एताशी वेदनां ते नारका अनुभवन्तीति पूर्वेणान्वयः ‘एवं जाव धूमप्पभाए' एवं यावद् धूमप्रभायां पृथिव्याम्, एवं रत्नप्रभावदेव शर्कराप्रभा बालुकाप्रभा जनक होती है उसका इलाज-प्रतिकार-नहीं हो सकता है-इसलिये यह निष्ठुर होती है इसके होने पर नारक जीवों के परिणामों में अत्यन्त रुद्रताआजाती है इस कारण यह चण्ड होती है 'तिव्वं' इस वेदना से अधिक और कोई वेदना नहीं हैं-यह वेदना की पराकाष्ठा रूप होती हैं-इसलिये इसे तीव्र कहा गया है 'दुक्ख' यह वेदना सुख के लेश से भी वर्जित होती है-इसमें केवल दुःख का ही साम्राज्य अत्यन्त दुःख भरा रहता है, अथवा यह स्वयं दुःख रूप होती है इसलिये इसे दुःख कहा गया है 'दुग्गं' इससे जब तक जीव नरक में रहता है तब तक छूट नहीं सकता है अत: इसे दुर्ग दुर्लध्य कहा गया है, 'दुरहियासं' इसे नारक जीव प्रसन्न चित्त से नहीं भोगते हैं किन्तु बडी कठिनता के साथ दुरध्यवसाय पूर्वक भोगते हैं अतःयह दुःख से सहन करने योग्य होने से दुरधिसह्य है ऐसे विशेषणों वाली वेदना को वे नारक जीव आयु पर्यन्त वहां सहन करते रहते हैं एवं जाव धूमप्पभाए' છે. તેને ઉપાય અર્થાત્ પ્રતીકાર થઈ શકતું નથી. તેથી તે નિષ્ફર હોય છે. તે હોવાથી નારક જીવોના પરિણામમાં અત્યંત રૂદ્રતા આવી જાય છે તેથી तेथड हेवाय छे. 'तिव्व' मा वहनाथी भौटी छ वहना हाती नथी. अर्थात् मा वहनानी ५२।४1081 ३५ हाय छे. तथा तेने तीवही छ. 'दुक्खं" આ વેદના સુખના લેશથી પણ વજીત હોય છે. આમાં કેવળ દુઃખનું જ સામ્રાજ્ય ભર્યું હોય છે. અથવા આ વેદના સ્વયં દુઃખ રૂપ હોય છે. તેથી तनम से प्रमाणे हे छ 'दुग्गं' तथा न्यो सुधा ०१ १२४भा २ छ,
ત્યાં સુધી છૂટી શકતા નથી. તેથી તેને દુર્ગ અર્થાત દુર્લય કહેલ છે 'दुरहियास' ना२४ । प्रसन्न वित्तथा तेन साता नथी. परंतु धी કઠણાઈથી દુરધ્યવસાય પૂર્વક ભગવે છે. તેથી તે દુઃખથી સહન કરવા યોગ્ય હોવાથી “દુરધિસહય છે. આવા વિશેષણોવાળી વેદનાને એ નારક છ આયુષ્ય સમાપ્ત થતાં સુધી ત્યાં રહીને સહન કરતા રહે છે.
‘एवं जाव धूमप्पभाए' मा प्रमाणे ना२४ वा, शराला,
જીવાભિગમસૂત્ર