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________________ जीवाभिगमसूत्रे स्तद्वदिति वा 'कवियच्छृति वा' कपिकच्छूरिति वा, कपिकच्छ्र:-कण्डूजनको. वल्ली विशेष: 'कवाछु इति लोकमसिद्धः' 'विच्छय कंटएति वा' वृश्चिक कण्टक इति वा 'इंगालेति वा' अङ्गार इति वा, अङ्गारो निधूमाग्निः । 'जालेइ वा ज्वाला इति वा ज्वालाऽनलसंबद्धा 'मुम्मुरेइ वा' मुर्मुर इति वा मुर्मुरः फुफुकादौ मसृण्णाग्निः । अच्चीति वा' अचिरिति वा, अर्चिरनलविच्छिन्ना ज्वाला। 'अलाएइ वा, अलातमिति वा, अलातमुल्मुकम् । 'सुद्धागणीइ वा' शुद्धाग्निरितिवा, शुद्धाग्निरयः पिण्डाद्यनुगतोऽग्निविद्युतादिर्वा इति शब्दः परस्परसमुच्चये इह कस्यापि नरकस्य स्पर्शः शरीरावयवच्छेदकः, अपरस्य भेदकोऽन्यस्य व्यथाजनकोऽपरस्य दाहकः इत्यादि साम्यप्रतिपत्त्यर्थ मसिपत्रादीनां नानाविधानाचका 'विच्छुयकंटए वा' वृश्चिक के डक वा, 'इंगालेति वा' निर्धूम अग्निका, 'जालेइ वा' ज्वाला का 'मुम्मुरेइ वा' मुमुर अग्नि का, 'अच्चीति वा' अनिविच्छिन्न ज्वाला का 'अलाएइ वा' अलात जलते हुए काष्ट की अग्नि का, 'सुद्धागणीइ वा' शुद्ध अग्नि-तपे हुए लोह पिण्ड की अग्नि का या विद्युत आदि का जैसा स्पर्श होता है गौतम ! पूछते है ? तो क्या 'भवेयारवे सिया' हे भदन्त ! ऐसा ही स्पर्श उन नरकों का होता है ? यहां सूत्र में सर्वत्र इति शब्द उपमाभूत वस्तुके स्व. रूप की परिसमाप्ति का सूचक हैं -तथा 'वा' शब्द परस्पर में समुच्चय का वाचक है इसलिये यहां किसी नरक का स्पर्श शरीर के अवयवों का छेदक होता है किसी नरक का स्पर्श शरीर के अवयवों का भेदक होता है किसी नरक का स्पर्श व्यथा जनक होता है किसी नरक का स्पर्श दाह यना ( ना) 'विच्छुयकंटए वा' वाछिन भने। 'इंगालेति वा' All राना ५ 'जालेइ वा' मनिन arialन'मुम्मुरेइ वा' भुभ मानिन। 'अच्चीति वा' मनिविछिन्न मनिन पाना 'अलाएइ वा' असातनाम mu allनी भनिन। 'सुद्धागणीइ वा' शुद्ध मनि-मर्थात् तपेा લેખંડના પિંડના અગ્નિને અથવા વીજળી વિગેરેનો જે સ્પર્શ હોય छ, 'भवेएयारूवे सिया' गौतमपाभी प्रभु ने पूछे छ है-मापन सवार સ્પર્શ આ નરકનો હોય છે? અહિયાં સૂત્રમાં બધે ઈતિ શબ્દ ઉપમાભૂત વસ્તુસ્વરૂપની પરિસમાપ્તિ સૂચક છે. તથા “વા” શબ્દ પરસ્પરમાં સમુચ્ચયન વાચક છે. તેથી અહિયાં કોઈ પણ નરકાવાસને સ્પર્શ શરીરના અવયવોને છેદક હોય છે. કેઈ નરકાવાસને સ્પર્શ શરીરના અવયવોનો ભેદક હોય છે. કોઈ નારકાવાસને સ્પર્શ વ્યથા જનક હોય છે. કોઈ નારકાવાસનો જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006344
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages918
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size46 MB
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