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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र. १ द्विप्रत्यवतारप्रतिपत्तिनिरूपणम् ५३ बादरत्वम् सूक्ष्मा च ते पृथिवीकायिका चते इति सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः, बादराश्च ते पृथिवी कायिकाश्च इति बादरपृथिवीकायिकाः, उभयात्रापि च शब्दौ स्वगतानेक भेदसूचनाय निर्दिष्टौ, तत्र सूक्ष्माः सकललोकवर्त्तिनो भवन्ति बादरास्तु लोकैकदेशवर्त्तिनो भवन्तीति भावः । तत्र सूक्ष्मपृथिवीकायिकान् दर्शयितुमाह- 'से किं तं' इत्यादि 'से किं तं सुहुमपुढवीकाइया' अथ के सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः इति प्रश्नः, उत्तरयति - ' मुहुमपुढवीकाइया दुविहा पन्नत्ता' सूक्ष्म पृथिवीकायिका द्विविधाः- द्विप्रकारकाः प्रज्ञप्ताः - कथिताः, द्वैविध्यमेव दर्शयति – 'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा- पज्जत्तगा य अपज्जगा य' पर्याप्तकाश्च अपर्याप्तकाश्च तत्र पर्याप्तिता धर्मविशिष्टाः पर्याप्ताः पर्याप्तिर्नाम आहारादिपुद्गलग्रहणपरिणमनहेतुर्जीवस्य शक्तिविशेषः । स च शक्ति 1 कर्मोदयजनित है । बदर- बेर और आंवले की सूक्ष्मता बादरता के जैसी वह आपेक्षिक नहीं है । तथा च सूक्ष्मनामकर्म के उदय वाले जो पृथिवीकायिक हैं वे सूक्ष्मपृथिवीकायिक हैं और बादर नामकर्म के उदय वाले जो पृथिवीकायिक हैं वे बादर पृथिवीकायिक हैं। यहां जो दो चकारों का प्रयोग हुआ है वह स्वस्वगत अनेक भेदों को सूचित करने के लिये हुआ हैं। इनमें जो सूक्ष्मजीव है-वे तो सकललोकव्यापी होते हैं । और जो बादरजीव हैं वे लोक के एकदेशवर्ती होते हैं । 'से किं तं सुमपुढवी काइया' सूक्ष्म पृथिवी कायिक जीव कितने प्रकार के होते हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं "सुहुमपुढवी काइया दुविहा पन्नत्ता" सूक्ष्मपृथिवीकायिकजीव दो प्रकार के होते हैं- "तंजहा" वे इनके दो प्रकार ये है - " पज्जत्तगा य अपज्जतगा य" एक पर्याप्तकसूक्ष्म पृथिवी कायिक और दूसरे अपर्याप्तक सूक्ष्म पृथिवोकायिक, जो पर्याप्तिता धर्मविशिष्ट हैं - वे पर्याप्त है अहारादिपुद्गलों को ग्रहण करने की एवं उससे खल रस भोग रूपसे परिणमाने की जो जीव की शक्ति विशेष ખેર અને આમળાની સૂક્ષ્મતા ખાદરતાની જેમ આપેક્ષિક નથી. આ પ્રકારે સૂક્ષ્મ નામકમના ઉદયવાળા જે પૃથ્વીકાયિકા છે, તેમને સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિકા કહે છે, અને બાદર નામકર્મના ઉદયવાળા જે પૃથ્વીકાયિકા છે, તેમને ખાદર પૃથ્વીકાયિકા કહે છે. અહીં જે એ ચકારને પ્રયાગ થયા છે તે પ્રત્યેકના અનેક ભેદો દર્શાવવાને માટે થયા છે જે સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિક જીવા છે, તેઓ તા સકળ લેાકવ્યાપી હાય છે. જે માદર પૃથ્વીકાયિક જીવા છે, તેઓ લાકના એકદેશવી હાય છે, गौतम स्वामीनो प्रश्न - " से किं तं सुहुमपुढवीकाइया ?” हे भगवन् ! सूक्ष्म पृथ्वीકાયિકાના કેટલા પ્રકાર છે ? भडावीर प्रभुने। उत्तर--"सुहुमपुढवीकाइया दुविहा पण्णत्ता तंजहा" हे गौतम! सूक्ष्म पृथ्वी अयिक भवना नीचे प्रमाणे मे प्रकार उद्या छे - "पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य" (१) पर्यास सूक्ष्मपृथ्वी अयि मने (२) अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वी अि આહારાદિ પુદૂગલાને ગ્રહણ કરવાની અને તેનુ ખલ રસ ભાગ રૂપે પરિણમન કરવાની જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006343
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages656
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size37 MB
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