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________________ जीवाभिगमसूत्रे जधन्येन वर्षपृथक्त्वं द्विवर्षादारभ्य नववर्षपर्यन्तमन्तरं भवति, कथमित्याह - इह यो गर्भस्थः सर्वाभिः पर्याप्तिभि पर्याप्तः स शुभाध्यवसायोपेतो मृतः सन् आनतकल्पादर्वाक् ये देवास्तषूत्पद्यन्ते नत्वानतादिषु, यतस्तावन्मात्रकाले आनतादि योग्याध्यवसायविशुद्धिर्न भवेत्, य आनतादिभ्यश्च्युत्वा भूयोऽपि आनतादिषु उत्पत्स्यते स नियमाच्चारित्रमवाप्यैवोत्पत्स्यते न तुचारित्रमनवाप्य, चारित्रं चाष्टमे वर्षे प्राप्यते न तु तदर्वाक्. अतएवोक्तं जधन्यतो वर्षपृथक्त्वमिति । 'उक्कोसेणं वणस्सइकालो' उत्कर्षेण वनस्पतिकालं यावदन्तरं भवति इति । ‘एवं जाव गेवेज्जदेवपुरिसस्स वि' एवम-आनत देवपुरुषवदेव प्राणतारणाच्युतकल्प अवेयक देवपुरुषस्यापि प्रत्येकस्य जघन्येन वर्षपृथकत्वम् उत्कर्षेण वनस्पतिकालपर्यन्तमिति । 'अणुत्तरोववाइयदेवपुरिसस्स' अनुत्तगेपपातिककल्पातीतदेव"जहन्नेण" जधन्य से 'वासपहत्त" वर्ष पृथक्त्व दो वर्ष से नोवर्ष तक का है - यह कैसे ! सो कहते हैं -यहां जो गर्भस्थ कोई प्राणी सब पर्याप्तियों से होता हुआ शुभ अध्यवसाय से मर कर आनत कल्प से पूर्ववर्ती जो देव हैं उन में उत्पन्न होता है किन्तु आनत आदि देव लोको में नहीं उत्पन्न होता है क्यों कि इतने मात्र काल में आनत कल्पादिके योग्य अध्यवसाय की विशुद्धि नहीं हो सकती है तात्पर्य यह है कि जो जीव आनतादिकल्प से च्यवित होकर यदि फिर आनतादि कल्पों में उत्पन्न होगा वह नियम से चारित्र लेकर ही वहां उत्पन्न होगा किन्तु विना चारित्र लिये उत्पन्न नहीं हो सकता हैं । और चारित्र आठवे वर्ष में प्राप्त होता है इससे पहले नहीं, इसलिये जधन्य से वर्षपृथक्त्व का अन्तर कहा है। "उक्कोसेणं" उत्कृष्ट से "वणस्सइकालो” वनस्पतिकाल-अनन्तकाल-तक का है । 'एवं जाव गेवेज्जदेवपुरिसस्स वि" आनत देव पुरुष के जैसे ही प्राणत आरण अच्युत कल्प के और अवेयक के देव पुरष का भी अन्तर जानना चाहिये-जधन्य से वर्षपृथक्त्व और उत्कृष्ट से वनस्पति काल तक का 'अणुमलियां मत२ "जहण्णेणं" धन्यथी “वासपहत्तं" वर्ष पृथत्व-मट -2 वर्ष थी न. વર્ષ સુધીનું છે. આ કેવી રીતે ? તે બાબતમાં કહે છે કે–અહિંયાં જે ગર્ભસ્થ કેઈ પ્રાણ બધી પર્યાપ્તિથી પર્યાપ્ત થઈને શુભ અધ્યવસાયથી મરીને આનતક પથી પહેલાના જે દે છે. તેમાંથી ઉત્પન્ન થાય છે. પરંતુ, આનત વિગેરે દેવલોકમાં ઉત્પન્ન થતા નથી. કેમકે–એટલા જ કાળમાં આનતકલ્પ વિગેરેને યોગ્ય અધ્યવસાયની વિશુદ્ધિ થઈ શકતી નથી. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે–જે આનત વિગેરે કલ્પોમાંથી યવીને જે પાછા આનત વિગેરે કલ્પમાં ઉત્પન્ન થશે તે નિયમથી ચારિત્ર લઈને જ ત્યાં ઉત્પન્ન થશે પરંતુ ચારિત્ર લીધા વિના ઉત્પન્ન થઈ શકતા નથી. ચારિત્ર આઠમા વર્ષમાં પ્રાપ્ત થાય છે. तेनाथी पडi प्राप्त थ नथी. तेथी धन्यथी व पृथत्वन मत२ धुं छे. “उक्कोसेणं" अष्टथी "बणस्सइ कालो" वनस्पति मेट -मनात सुधीनु छ. "एवं जाव गेवेज देवपुरिसस्स वि" मानत ५३षोनी रेभ प्रात, मा२६], अच्युत, ४६५ना भने વેયકના દેવ પુરૂષોનું અંતર પણ સમજી લેવું. તે જઘન્યથી વર્ષ પૃથકત્વ અને ઉત્કૃષ્ટથી જીવાભિગમસૂત્રા
SR No.006343
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages656
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size37 MB
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