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________________ M M ४९४ ___जीवाभिगमसूत्रे सप्रभेदानां तिर्यङ्मनुष्यपुरुषाणामन्तरमभिधाय सम्प्रति देवपुरुषाणामन्तरप्रतिपादनार्थ माह - 'देवपुरिसाणं' इत्यादि, 'देवपुरिसाणं' देवपुरुषाणाम्, जहन्नेणं अंतो मुहत्तं' जधन्येनान्तर्मुहूर्तमन्तरं भवति, देवभवात् च्युत्वा गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्यपुरुषेषु समुत्पद्य पर्याप्ति समाप्त्यनन्तरं तथाविधाध्यवसायमरणेन भूयोऽपि कस्यापि देवत्वेन उत्पादसंभवादिति । 'उक्कोसेणं वणस्सइकालो' उत्कर्षेण वनस्पतिकालपर्यन्तमन्तरं भवतीति । 'भवणवासिदेवपुरिसाणं ताव जाव सहस्सारो' भवनवासिदेव पुरुषाणां तावत् मनुष्य पुरुषों का अन्तर जन्म की तथा संहरण की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट से सामान्य अकर्मभूमिक मनुष्य पुरुषों के समान जान लेना चाहिये । इस प्रकार से सप्रभेद तिर्यञ्च पुरुषो का और मनुष्य पुरुषों का अन्तर कह कर अब सूत्रकार देव पुरुषों का अन्तर प्रतिपादन करते हैं - "देवपुरिसाण" देव पुरुषों का अन्तर "जहन्नेणं अंतोमुहुत्त उक्कोसेणं वणस्सइकालो" देव पुरुषों को देवपुरुषत्व से छूटने पर पुनः उस देव पुरुषत्व की प्राप्ति जघन्य से एक अन्तर्मुहर्त्त के बाद होती है और उत्कृष्ट से वनस्पति काल-अनन्त काल-निकल जाने के बाद होती है, यहां जघन्य से जो अन्तर एक अन्तमुहर्त का कहा गया है- सो उसका भाव ऐसा है कि कोई देव देवभव से च्युत हुआ और वह गर्भज मनुष्य पुरुषों में जाकर उत्पन्न हो गया बाद में पर्याप्ति समाप्ति के अनन्तर उसका मरण हो गया तो वह तथाविध अध्यवसाय वाले मरण से फिर भी किसी देव की पर्याय से उत्पन्न हो सकता है। "भवनवासि देवपुरिसाणं ताव जाव सहस्सारो" भवन वासि देव पुरुषों से लेकर सहस्रार तक के देवपुरुषों का यहां यावत्पद से दश प्रकार के ઉત્તરકુર અંતરદ્વીપ આ અકર્મભૂમિના મનુષ્ય પુરૂષનું અંતર જન્મ તથા સંહરણની અપેક્ષાથી જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટ એમ બન્ને પ્રકારથી સામાન્ય અકર્મભૂમિ જ મનુષ્ય પુરુપિની જેમ સમજી લેવું. આ રીતે ભેદ પ્રભેદો સહિત તિર્યંચ પુરુષનું અને મનુષ્ય પુરુષનું અંતર કહીને હવે सूत्रा२ हेव ५३षोना मतरनु प्रतिपान ४२ai ४ छ-"देवपुरिसाणं" हेव ५३पानु मत२ "जहन्नेणं अंतोमुहु तं उक्कोसेणं वणस्सइ कालो" विषुषोने ५३५५९थी छूटया પછી ફરીથી તે દેવપુરુષપણાની પ્રાપ્તિ જઘન્યથી એક અંતર્મુહૂર્ત પછી થાય છે. અને ઉત્કછથી વનસ્પતિકાળ એટલેકે અનંતકાળ વીતી ગયા પછી થાય છે. અહીં જઘન્યથી જે એક અંતર્મુહૂર્તનું અંતર કહ્યું છે, તે તેને ભાવ એ છે કે-કોઈ દેવ દેવભ વથી શ્રુત થયા અને તે ગર્ભજ મનુષ્ય પુરૂષોમાં ઉત્પન્ન થયા. તે તથાવિધ અધ્યવસાય વાળા મરણથી પાછા પણ કોઈ દેવની પર્યાયથી ઉત્પન્ન થઈ શકે છે– 'भवनवासि देवपुरिसाणं ताव जाव सहस्सारो" सपनवासी देवY३षोथी बनि ससार જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006343
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages656
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size37 MB
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