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________________ ३५० जीवाभिगमसूत्रे स्योत्कर्षतः एतावत्प्रमाणकभवस्थितेरसंभवादिति । अतः परं स्थावरत्रसजीवयोरेव कायस्थितिकालमाह-'थावरेण भंते' इत्यादि, 'थावरेणं भंते' स्थावरजीवः खलु भदन्त ! 'थावरत्ति कालओ केवच्चिरं होति' स्थावर इति-स्थावर इत्यनेन रूपेण स्थावरत्वेनेति भावः कालतः कियच्चिरं भवतीति प्रश्नः भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहन्नेणं अंतोमुहत्तं' जधन्येनान्तर्मुहूर्त्तमात्रं स्थावरत्वेन रूपेण स्थावरो भवतीति । 'उक्कोसेणं अणंतं कालं' उत्कर्षतोऽनन्तं कालम् । अमुमनन्तं कालं कालक्षेत्राभ्यां निरूपयति - 'अणताओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ कालओ' अनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः कालतः, 'खेत्तओ अणंता लोया' क्षेत्रतोऽनन्ता लोकाः, अयं भावः-यथा कल्पनया अनन्त लोकेषु यावन्त आकाशप्रदेशासे एक अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की कही गई है। इतनी बड़ी स्थिति का देवभव और नारकभव की अपेक्षा से कथन किया गया है। मनुष्यभव और तिर्यञ्च भव की अपेक्षा से नहीं क्योंकि वहां इतनी बड़ी स्थिति उत्कृष्ट मनुष्यतिर्यञ्च की नहीं होती है. वहां तो उत्कृष्ट से स्थिति केवल तोन ही पल्योपम की होती है। स्थावर एवं त्रस जीव की कायस्थिति का कथन करते हैं-"थावरे ण भंते ! थावरत्ति कालओ केवच्चिरं होई" हे भदन्त ! यह जीव स्थावर है इस रूप से कितने काल तक रहता है ? "गोयमा ! जहन्नेणं अंतो मुहत्तं उक्कोसेणं अणंत कालं" गौतम ! जघन्य से तो यह जीव स्थावर रूप से एक अन्तर्मुहूर्त तक रहता है और उत्कृष्ट से अनन्त काल तक रहता है। यह वनस्पतिकायिक की कायस्थिति की अपेक्षा से कथन है. इस उत्कृष्ट कायस्थिति में 'अणंताओ उस्स प्पिणीओसप्पिणीओ" अनन्त उत्सर्पिणी काल और अनन्त अवसर्पिणी काल व्यतीत हो जाते हैं । "खेत्तओ अणंता लोया" तथा क्षेत्र की अपेक्षा अनन्त लोक समाप्त हो जाते हैं। तात्पर्य कहने का यह है कि स्थावर जोव स्थावरकाय में इतने काल तक रह सकता है. क्षेत्रकी अपेक्षा વામાં આવી છે. આટલી મોટી સ્થિતિનું કથન દેવભવ અને નારક ભવની અપેક્ષાથી કરેલ છે, મનુષ્યભવની અને તિર્યંચ ભવની અપેક્ષાથી કરેલ નથી. કેમકે–ત્યાં એટલી મોટી ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ મનુષ્ય અને તિયચની હોતી નથી. ત્યાં તે ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ કેવળ ત્રણ पक्ष्या५मनी डाय छे. "थावरेणं भंते ! थावरत्ति कालओ केवच्चिरं होइ" भगवन मा ७१ स्थाव२ छ, मेरीत स! ४ सुधी २३ छ ? "गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहतं उक्कोसेण अणंतं कालं" 3 गौतम ! धन्यथी तो मा ७१ स्था१२ ५॥थी ये અંતમુહૂર્ત સુધી રહે છે. અનેક ઉત્કૃષ્ટથી અનંત કાળ સુધી રહે છે. આ કથન વનસ્પતિ आयिनी जाय स्थितिमी अपेक्षाथी उस छे. माट स्थितिमा “अणंताओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ" मन तत्सपिणी मने मन त सक्स वीतीय छे. "खेत्तओ अणंता लोया" तथा क्षेत्रनी अपेक्षाथी मन त समारत 25 गय छे. જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006343
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages656
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size37 MB
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