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________________ सुबोधिनी टीका. देवकुत समवसरणभूभिसंमार्जनादिकम् आभियोगका देवा: अभ्रवालकानि विकुर्वन्ति विकुर्वित्वा क्षिप्रमेव प्रस्तनितयिन्त aftaar प्रमेव विद्ययन्ति विद्ययित्वा श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य सर्वतः समन्तात् यो जनपरिमण्डलं नात्युदकं नातिमृत्तिकं तत् प्रविरलप्रस्पृष्टं रजो रेणुविनाशनं दिव्यं सुरभिगन्धोदकं वर्ष वर्षन्ति वर्षित्वा निहतरजः नष्टरजः ६५ को या यावत् उद्यान को त्वरा से रहित होकर यावत् सब तरफ से अच्छी तरह सींचता है ( एवामेव तेवि सरियाभस्य देवस्स आभियोगिया देवा अब्भवद्दल विउव्वंति ) इसी प्रकार से उन सूर्याभदेव के आभियोगिक देवोंने अभ्रमेघों की विकुर्वणा की - सो ( विउच्चित्ता खिप्पामेव पयणतणायंति) विकुर्वणा करके बहुत ही शीघ्र वे मेघ बडे जोर से तडतडात करते हुए गरजने लगे ( पयणतणाइत्ता खिप्पामेव विज्जुयायंति ) गरज२ कर शीघ्र ही वे बिजलियों को चमकाने लगे ( विज्जुयाइत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स सम्बओ समता जोयणपरिमंडलं णच्चोदगं णाइमट्टियं तं पविरलपप्फुसि) बिजलियों को चमका कर फिर वे श्रमण भगवान् महावीर की उस योजनपरिमित मंडलाकार भूमि में वेगवान् अति वृष्टि से रहित होकर वरसे, इससे कीचड नहीं होने पाये, रिमझिम २ रूप में अचित्त वृष्टि हुई इस अचित्त वृष्टि से ( रयरेणुविणासणं ) जो जल गिरा उससे रजरेणु का विनाश हो गया अर्थात् रज दब गई ( दिव्वं सुरभिगंधोदगं वासं वासंति ) इस तरह से सूर्याभदेव के आभियोगिक देवोंने अभ्रને ત્વરા રહિત થઈ ને ( શાંતિથી ધીમે ) યાવતુ ચારે બાજુએ સારી રીતે છાંટે છે. ( एवामेव ते वि सूरियाभम्य देवस्स आभियोगिया देवा अब्भवद्दलए विब्वति )मा प्रमाणे ते सूर्यालहेवना आभियोग हेवाओ अब्र भेघानी विठुवारी तो ( विउव्वित्ता खिप्पामेव पयणतणायंति ) विरुवा श्ररीने ४हम भट्ट्ठी ते भेघा अडु भोटा साढे घर घडू तां गरवा साग्या ( पयणतणा इत्ता खिप्पामेव विज्जुयायंति ) गरल गरने शीघ्र तेथेो वील्जीओ। यभाववा साग्या ( विज्जुयाइत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स सव्वओ समंता जोयणपरि मंडल चोदगं णाइमट्टिय तं पविरलपप्फुसियं ) वीन्जीओ यमावाने पछी तेथे! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરની તે યાજન જેટલી મંડલાકાર ભૂમિમાં વેગવાન અતિ વૃષ્ટિથી રહિત થઈને વરસ્યા. જેથી કાઢવથયા નહિ, ઝરમર ઝરમર ચિત્ત વૃષ્ટિ थर्ध. या अयित्त वृष्टिथी ( रयरेणुविणासण ) ने पाणी पड्यु तेथी २०४ रेगुना विनाश थर्ध गये।. भेटले में धूण हमाई गई. (दिव्वं सुरभिगघोद्गं वासं वासंति) આ રીતે સૂર્યાભદેવના આભિચાગિક દવેએ અભ્રમેઘાની વિકુણા કરીને દ્વિવ્ય શ્રી રાજપ્રશ્નીય સૂત્ર : ૦૧
SR No.006341
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1990
Total Pages718
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size39 MB
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