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________________ सुबोधिनी टीका. स. ९४ सूर्याभदेवस्य सुधर्मसभाप्रवेशादिनिरूपणम् ६८३ समुद्केषु प्रतिनिक्षपति, माणवकं चैत्यस्तम्म लोमहस्तेन प्रमार्जयति दिव्यया दकधारया सरसेन गोशीर्षचन्दनेन चर्चकान् ददाति, पुष्पारोहणं यावद् धूपं ददाति । यत्रैव सिंहासनं तदेव, यत्रैव देवशयनीयं तदेव यत्रैव क्षुद्रमहेन्द्रध्वजस्तदेव, यत्रैव प्रहरणकोशः चोप्पालकस्तत्रैव उपागच्छति, लोमहस्तकं परामशति प्रहरणकोश चोप्पालं लोमस्तकेन प्रमार्जयति, दिव्यया दकधारया सरसेन उनके समक्ष धूप जलाई और फिर बादमें उन जिन अस्थियोंको उसने उन्हीं वज्रमय गोलवृत्तसमुदकोंमें बन्दकर रख दिया. १, ( माणवगं चेयं खभ लोमहत्थएणं पमजइ ) बादमें उसने माणवक स्तंभकी लोमहस्तकसे से प्रमार्जनाकी (दिव्वाए दगधाराए सरसेणं गोसीसचंदणेण चच्चए दलयइ) और दिव्य जलधारासे सरस गोशीर्षचन्दनसे उसे चर्चित किया, यावत् धूपदानान्त तकके और भी सब काम उसने किये२, ( पुप्फारुहणं जाव धूवं दलयइ ) यही बात इस सूत्रपाठ द्वारा समझाई गई है। ( जेणेव सीहासणे तं चेव ) इसके बाद वह जहां सिंहासन था वहां आया, वहांपर भी उसने प्रमार्जनासे लेकर पूर्वोक्त धूपदानान्त तकके सब कार्य किये. ( जेणेव देवसयणिजे, तं चेव, जेणेव खुड्डागमहिंदज्झए तं चेव ) वहांसे फिर वह देवशयनीयके पास आया-वहांपर भी उसने वही सब धूपदानान्त तकके कार्य किये फिर वहांसे वह क्षुद्र महेन्द्रध्वजके पास आया-वहां पर भी वही पूर्वोक्त सब कार्य उसने किये ५ ( जेणेव पहरणकोसे चोप्पालए तेणेव उवागच्छइ ) इसके बाद वह जहां प्रहरणकोश-( शस्त्रभंडार ) चोप्पालक था Frt अस्थियाने 40 गासवृत्त सभुमा ४ ४ीने भू ai. १, (माणवगं चेइयं खंभं लोमहत्थगं पमज्जइ ) त्या२५छी तो मा५५१४२ मनी मस्त43 प्रमान ४२१. (दिव्वाए दगधाराए सरसेणं गोसीसचंदणं चच्चए दलयइ) અને દિવ્ય જલધારાથી સિંચિત કરીને સરસ ગોશીર્ષચન્દનથી તેને ચર્ચિત કર્યો. यावत् ५५हान सुधीनी मधी विधिये। पूरी ४२. २, (पुप्फारुहण जाव धूवं दलयइ) से वात । सूत्रा643 समलवामा आवी छे. (जेणेव सीहासणे तं चेव ) त्यांथी पछी ते ज्या सिंहासन तुं त्या माव्या. ५ तेथे प्रमानाथी भासन ५५हान सुधीना स - ५२i . (जेणेव देवसयणिज्जे, तं चेव खुड्डागमहिंदज्झए तं चेव) त्यांथी पछी ते ३१शयनीयनी पासे मा८या. त्यां ५५५ તેણે ધૂપદાન સુધીના બધાં કાર્યો સંપન્ન કર્યા. ત્યાં થી પછી તે ક્ષુદ્ર મહેન્દ્રધ્વજની पासे गये।. त्यां पुति मयां ये सपन्न ४ा. (जेणेव पहरणकोसे चोप्पालए तेणेव उवागच्छइ ) त्या२५छी ते प्रह२६१० (श २)ना पास શ્રી રાજપ્રક્ષીય સૂત્રઃ ૦૧
SR No.006341
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1990
Total Pages718
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size39 MB
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