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________________ ६३८ राजप्रश्नीयसूत्रे दाक्षिणात्यं द्वारं तत्रैव उपागच्छति, लोमहस्तकं परामृशति. द्वारचेटयो च, शालभधिकाश्च, व्यालरूपाणि च. लोमहस्तकेन प्रमार्जयति, दिव्यया दकधारया अभ्युक्षयति, सरसेन गोशीर्षचन्दनेन चर्चकान् ददाति, दत्त्वा पुष्पारोहणं माल्यारोहणं यावत् आभरणारोहणं करोति. कृत्वा आसक्तावसक्त० यावद् धूपं ददाति । यत्रैव दाक्षिणात्ये द्वारे मुखमण्डपो यत्रैव दाक्षिणात्यस्य मुखमण्डपस्य बहुमध्यदेशभागस्तत्रैव उपागच्छति लोमहस्तकं परामृशति. मंडलक को लिखा (कयग्गहग्गहिय जाव मुत्तपुप्फपुंजोवयारकलियं करेइ ) लिखकर फिर उसने उसे कचग्रह गृहीत यावत् विषमुक्त पंचवर्णवाले पुष्पों से मुक्तपुष्पपुंजोपचारकलित किया. (करेत्ता धूवं दलयइ ) इस प्रकार करके फिर उसने वहां धूप दी-धूप जलाई (जेणेच सिद्धाययणस्स दाहिणिल्ले दारे तेणेव उवागच्छइ) फिर वह सिद्धायतन के दक्षिणद्वार पर आया. वहां आकरके उसने (लोमहत्थगं परामुसइ) लोमहस्तक को उठाया (दारचेडीओय सालभंजियाओ य, वालरूवए य लोमहत्थएणं पमजइ) उठाकर उसने द्वार की शाखाओं को, शालभंजिकाओं, एवं सर्परूपों को उस लोमहस्तक से साफ किया (दिव्याए दगधाराए अब्भुक्खेइ) दिव्यजलधारा से उन्हें सिंचित किया (सरसेणं गोसीसचंदणेणं चच्चए दलयइ) बाद में सरस गोशीषचन्दन का उन पर लेप किया (दलइत्ता पुष्फारहणं मल्लारहणं जाव आभरणारुहणं करेइ) लेप करके उन पर फिर उसने पुष्प चढाये, मालाएँ चढाई, यावत् आभरण चढाये (करित्ता आसत्तोसत्त० जाव धूवं दलयइ) यह सबकुछ करके फिर ऊँचे से लेकर नीचे तक लटकती हुई गोल २ लम्बीर मालाओं के समूह को उसने वहां पर सजाया यावत् फिर धूप जलाई (जेणेव दाहि3री (दिव्वाए दगधाराए अब्भुक्खेइ सरसेणं गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितल' मंडलग आलिहइ ) दिव्य धाराथी ते स्थान सियन यु, तथा सरसगाशीय है. नथी त्यां यांगुलित भनी २यन। ४री. (कयग्गहग्गहिय जाव मुत्त. पुष्फपुंजोवयारकलियं करेइ) २यना ४ीने पछी तेरे न्यथा गृहीत यावत विप्रभुत पायqfami Yण्याथी ते स्थानने समय त यु (करेत्ता धूवं दलयइ) २॥ प्रमाणे रीने तेथे त्यां ५५ ४ (जेणेव सिद्धाययणस्स दाहिणिल्ले दारे तेणेव उवागच्छइ) पछी ते सिद्धायतनना क्षिा२ त२५ गयो भने त्यो ४४ने तो (लोमहत्थगं परामुसइ) होमस्त मां बीघा. (दारचेडीओय, सालभंजियाओय, वालरुवए लोमहत्थएणं पमज्जइ) भने त्या२५छी तरी द्वारनी शापायी, शामि । भने सब ३पने त बामस्त४१ साई ४ो. (दिव्वाए दगधाराए अब्भुक्खेइ) त्या२५छी हिव्य धाराथी तेमने सिंथित ४ा. (सरसेणं गोसीस चदणेणं चच्चए दलयइ) त्या२मा सरस शशीष यननु तेमनी ५२ लेपन ४यु (दलइत्ता पुप्फारुहणं मल्लारुहणं जाव आभरणारुहणं करेइ) ५ ४ीन. तरी तमने पुष्पा भाजाय। सने यावतू माल । समर्पित ४ा. (करिता आसत्तो सत्त० जाव धूवं दलयइ) सेना ५छी तो थी नीये सुधी सटती श्रीशन प्रश्नीय सूत्र:०१
SR No.006341
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1990
Total Pages718
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size39 MB
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