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________________ ३३४ राजप्रश्नीयसूत्रे भवतीत्याख्यातम् , तानि खलु द्वाराणि पश्च योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, साधतृतीयानि। योजनशतानि विष्कम्भेण, तावन्त्येव प्रवेशेन, श्वेतानि वरकनकस्तूपिकानि ईहामृग-वृषभ-तुरग-नर-मकर-विहगव्यालक-किन्नर-रुरुशभर चमर-कुञ्जर-वनलता-पद्मलताभक्तिचित्राणि स्तम्भोद्गतवरवज्रवेदिकापरिगताभिरामाणि विद्याधरयमलयुगलयन्त्रयुक्तानीव अर्चिः सहस्रमालनीयानि रूपभवंतीतिमक्खाय) सूर्याभविमानकी एक २ बाहामें-अवलम्बन भित्तिमें एक एक हजार द्वार हैं ऐसा कहा गया है (तेण दारा पंच जोयण सयाई उड्द उच्चत्तेंण, अड्ढाइजाई जोयणसयाई विक्खभेणं, तावइयं चेव पवेसेणं ) ये प्रत्येक द्वार ५ सौ योजनके ऊंचे हैं और २५० के विस्तारवाले हैं। और इतने ही योजनके प्रवेशवाले हैं । (सेयावरकणगथूभियागा) वर्ण इनका श्वेत है. उत्तम सुवर्णमय शिखरोंसे ये युक्त हैं ( ईहामियउसभतुरगणरमगरविहगवालगकिन्नररुरुसरभचमरकुंजर-वणलयपउमलयभत्तिचित्ता, खंभुग्गयवरवयरवेइया परिग्गयाभिरामा) ईहामृग, वृषभ, तुरग, नर, मकर, विहग, व्यालक, किन्नर, रुरु, शरभ, चमर, कुंजर, वनलता, पद्मलता इनकी रचनासे ये सब द्वार अद्भुत हैं। इनके स्तम्भोंके ऊपर वज्ररत्नकी सुन्दर वेदिका बसि हुई है. इससे ये बडे सुहावने लगते हैं । (विजाहरजमल जुयल जंतजुत्ताविव अच्चीसहस्समालणीया) एकसे आकारवाले दो २ विद्याधरोंकी पुत्तलिकाओंसे ये मक्खायं ) सूर्यासविमाननी ४३ ४२४ -naमन मित्तिमा-४ मे १२ २८मा द्वारे-४२वालया-छ, माम उवाय छे. ( तेणं दारा पंच जोयणसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं, अडूढाइज्जाई जोयणसयाइविक्खंभेणं, तावइयं चेव पवेसेणं) આ દરેકે દરેક દ્વાર-દરવાજા પાંચ ચીજન જેટલી ઊંચાઈ ધરાવે છે. અને ૨૫૦ २८३। विस्तार धरावे छे थेटमा योन ९ ते २ प्रवेश वाणुछ. ( सेयावरकणगथूभियागा ) म स स २' 14 छ. तमा श्रेष्ठ सेनान शिw. राथी युद्धत छ (ईहामियउसभतुरगणरमगर विहगवालगकिन्नर रुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्ता, खंभुग्गय वरवयरवेइया परिग्गयाभिरामा ) डाभृग, वृषम, तु२१, १२, भ४२, विड, व्या-(स), नि२, २२ (भृग विशेष) २२म, ચમર, કુંજર (હાથી) વનલતા. પઘલતા આ સર્વની રચનાથી તે યુક્ત તેમજ અદ્દભુત હતાં, એમનાં થાંભલાઓની ઉપર વજરત્નની સુંદર વેદિકા છેमेथी ते सती सोडाभ। साणे छे. (विज्जाहरजमलजुयलजंतजुत्ताविव अच्चीसरस्समालणीया ) स२५॥ मा मध्ये विधायशनी पुतणीએથી તે યુક્ત છે. સહસ્ર કિરણોથી તે શભિત થઈ રહ્યાં છે, શ્રી રાજપ્રક્ષીય સૂત્રઃ ૦૧
SR No.006341
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1990
Total Pages718
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size39 MB
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