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________________ सुबोधिनी टीका. सू. २५ भगवद्वन्दनार्थं सूर्याभस्य गमनव्यवस्था २११ वैमानिका देवाः, च- पुनः बहव्यो वैमानिक्यो देव्यश्च सर्वद्वर्या यावद् - रवेण सर्वद्वर्थातिपदादारभ्य 'रवेणे' ति पर्यन्तपद सङ्ग्रहो बोध्यः, तथा - सर्वद्ध, सर्वद्युत्या, सर्वबलेन, सर्वसमुदयेन, सर्वाssदरेण, सर्वविभूत्या, सर्वविभूषया, सर्वसम्भ्रमेण, सर्वपुष्पमाल्यालङ्कारेण, सर्वत्रुटितशब्दसंनिनादेन महत्या ऋद्धा महत्या त्या महताबलेन महता समुदयेन महतावर त्रुटितयमकसमकप्रवादितेन, शङ्ख- पणव — पटह - भेरी - झल्लरी खरमुखी - हुडका - मुरजमृदङ्ग - दुन्दुभि-निर्घोषनादितरवेणे' ति एषां व्याख्या अष्टमसूत्रतोऽवसेया । सूर्याभं देवं पुरतः - अग्रे, पार्श्वतः पार्श्वयोः, मार्गतः - पृष्ठे च समनुगच्छन्तिपरिवेष्टय गच्छन्ति ॥ सू० २५ ॥ समूह से, अपने २ उपकरणों से और अपने २ वेषों से युक्त हुए चल रहे थे. इनके संप्रस्थान के अनन्तर अनेक सूर्याभविमानवासी देव और देवियां चली. ये सब उस समय अपनी सर्वद्धि से, सर्वद्यति से, सर्वबल से, सर्व समुदय से, सर्व आदर से, सर्व विभृति से, सर्व विभूषा से, सर्व संभ्रम से, सर्व पुष्पमालाओं एवं अलंकारों से, सर्व त्रुटितों के शब्द संनिनाद से महती ऋद्धि से, महती द्युति से, महाबल से, महा समुदाय से, चल रही थीं। यहां यह पाठ तथा महता वस्त्रुटितयमकसमक प्रवादितेन शंख - पणव- पटह- - भेरी- झल्लरी - खरमुही - हुडका - मुरज नादितरवेणं, तक का पाठ यावत् पद से गृहीत हुआ है । इन पदों की व्याख्या अष्टम सूत्र से जानना चाहिये. ये सब सूर्याभदेव को आगे पीछे एवं दोनों ओर से परिवेष्टित करके चलने लगे || सू० २५ ॥ 6 , પરિવાર સમૂહેાથી પાત પાતાના ઉપકણાથી અને પેાત પેાતાના પહેરવેશાથી સુસજ્જ થઈને ચાલી રહ્યાં હતાં. એમના પછી ઘણુ સૂર્યભવિમાન વાસી દેવ દેવીએ એ સર્વે તે સમયે પેાત પેાતાની સદ્ધિથી, સદ્યુતિથી, સ બળથી, સર્વ સમુध्यथी, सर्व आहरथी, सर्व विलूतिथी, सर्व विलूषार्थीी सर्व समथी, सर्व पुष्य માલાએથી અને અલકારાથી, સ ત્રુટિતાના શબ્દ સ`નિનાદ (ધ્વનિ)થી, મહતી ઋદ્ધિથી, મહતી દ્યુતિથી મહા બળથી મહા સમુદાયથી ચાલી રહ્યા હતાં. અહિ આ या ते 'महता वरत्रुटित यमक समक प्रवादितेन, शंख, पणव पट- भेरी झल्लरी खरमुही, हुक्का - मुरज नादित रवेणं' सुधिना या 'यावत् ' पहथी सग्रहीत थये। छे. આ પદોની વ્યાખ્યા આઠમાં સૂત્રથી જાણી લેલી આગળ પાછળ અને ચામેર વીંટાળાઈને ચાલવા જોઇએ. એ સર્વે સૂર્યાભ દેવની साग्या ॥ सू० २५ ॥ શ્રી રાજપ્રશ્નીય સૂત્ર ઃ ૦૧
SR No.006341
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1990
Total Pages718
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size39 MB
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