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________________ सुबोधिनी टीका. सू. १२ भगवद्वन्दनार्थ सूर्याभस्य गमनव्यवस्था ११३ दिग्भागमवक्रामति अवक्रम्य वैक्रियसमुद्घातेन समवहन्यते, सरवहत्य संख्येयानि योजनानि यावत् यथाबादरान् पुद्गलान् परिशातयति, परिशात्य यथासूक्ष्मान् पुद्गलान् पर्यादत्ते, पर्यादाय द्वितीयमपि वैक्रियसमुद्घातेन 'तएणं से आभियोगिए देवे' इत्यादि । सूत्रार्थ-(तएणं) इसके बाद ( से आभियोगिए देवे ) वह आभिवोगिक देव जब कि (सरियामेण देवेणं एवं वुत्ते समाणे) सूरियामदेवने उससे पूर्वोक्त रूपसे कहा ( हट्ट जाव हियए ) हृष्टतुष्ट यावत् हृदयवाला हो गया और ऐसा होकर उसने (करयलपरिग्गहियं जाव पडिसुणेइ) बडे विनयके साथ दोनों हाथोंकी अंजलि बनाकर और उसे मस्तक पर रखकर उसकी आज्ञाके वचनोंको स्वीकार किया, (पडिसुणित्ता उत्तरपुरथिमं दिसीभागं अवक्कमइ) स्वीकार करके फिर वह ईशान दिशामें गया (अवक्कमित्ता वेउचियसमुग्धाएणं समोहणइ) वहां जाकरके उसने वैक्रिय समुद्घात किया (समोहणित्ता संखेज्जाई जोयणाई जाव अहा बायरे पोग्गले पडिसाडेइ ) वैक्रियसमुद्घात करके संख्यात योजन तक आत्मप्रदेशोंको दण्डाकार रूपसे निकाला-यावत्-यथाबादर-रत्नोंके असार-पुद्गलोंका उसने परित्याग किया और (पडिसाडित्ता अहासुहुमे पोग्गले परियाएइ) परित्याग करके रत्नोंके यथा सूक्ष्म पुद्गलोंको ग्रहण किया (परियाइत्ता) ग्रहण करके ( दोचंपि 'तएणं से आभियोगिए देवे' इत्यादि । सूत्राथ-(तएणं) त्या२पछी ( से आभियोगिए देवे) ते मालियोगि हेव न्यारे (सूरियाभेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे) सूर्यामहेवे तने मा प्रभारी ४ . त्यारे ते ( हट्ठ-जाव हियए) इट-तुष्ट यावत् भनवाणे! २ गये। मन मे। धने. तेणे ( करयलपरिग्गहियं जाव पडिसुणेइ) मन न भावना साथे 'नाथानी અંજલી બનાવીને અને તેને મસ્તકે રાખીને તેની આજ્ઞાના વચનો સ્વીકારી લીધાં. (पडिसुणित्ता उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवक्कमइ) स्वारीने ते त्यांथी शान दिशामा गयो ( अवक्कमित्ता वेउव्वियसमुग्धारण समोहणइ ) त्यो भने तणे वैठिय सभुधात ४य (समोहणित्ता संखेज्जाइजोयणाई जाव अहा बायरे पोग्गलेपडिसाडेइ) વિક્રિય સમુદઘાત કરીને સંખ્યાત જન સુધી આત્મપ્રદેશોને દંડાકાર રૂપમાં બહાર પ્રકટ કર્યો. યાવત્ યથા બાદર રત્નના અસાર–પુદ્ગલોને તેણે ત્યાગ કર્યો मने (पडिसाडित्ता अहा सुहुमे पोग्गले परियाएइ) त्या रीने २त्नाना सार सूक्ष्म पुगताने अक्ष प्रा. (परियाइत्ता ) अक्षण शने (दोच्चपि वे उव्विय શ્રી રાજપ્રક્ષીય સૂત્રઃ ૦૧
SR No.006341
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1990
Total Pages718
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size39 MB
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