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________________ चन्द्रिका टीका श्रु. १, अ. १, अन्धसहायक पुरुषस्योत्तरं, भगवत्समीपेतद्गमनम् ७७ 'जाव णिग्गच्छति' यावन्निर्गच्छन्ति = उग्रा भोगा यावदेकस्यां दिशि एकाभिमुखा निर्गच्छन्तीत्यर्थः । तए णं से अंधपुरिसे तं पुरिसं एवं वयासी' ततः खलु सोऽन्धपुरुषस्तं = सचक्षुष्कं पुरुषमेवमवादीत्- 'गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! अम्हे विसमणं भगवं जाव पज्जुवासामो' गच्छामः खलु हे देवानुप्रिय ! arat श्रमण भगवन्तं महावीरं यावत् पर्युपास्महे | 'तर णं से जाइअंधे पुरिसे पुरओ दंडणं' ततः खलु स जात्यन्धः पुरुषः पुरतो दण्डकेन 'पगडढिज्जमाणे पगढिज्जमाणे' प्रकृष्यमाणः प्रकृष्यमाणः = नीयमानो नीयमानः 'जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ' यत्रैव श्रमणो भगवान महावीरस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य 'तिक्खुत्तो' त्रिकुत्वः= वंदन एवं उनसे धर्मश्रवण करने के लिये ये उग्र, भोग आदि और अन्य समस्त नगरनिवासी जन मृगाग्राम नगर के मध्यमध्य से एक ही दिशा की ओर चले जा रहे हैं, इसलिये जनसमूह का यह कोलाहल हो रहा है । 'तए णं से अंधपुरिसे तं पुरिसं एवं वयासी' इस बात को सुनकर पश्चात् वह जन्मांध व्यक्ति उस अपने सहायक व्यक्ति से कहने लगा कि 'गच्छामो णं देवाणुप्पिया अम्हे वि' हे देवानुप्रिय ! चलो, अपने भी चलें, और 'समणं भगवं जाव पज्जुवासामो' वहां चलकर श्रमण भगवान महावीर की वंदना, नमस्कार और त्रिविधरूप से पर्युपासना करें। 'तर णं से जाइअंधे पुरिसे' इस प्रकार उस जन्मांध के कथन को सुनकर वह चक्षुष्मान् पुरुष उस जन्मांध को 'पुरओ दंडएण पगइढिज्जमाणे पगढिज्जमाणे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छ' दंडे का अन्तभाग पकडवाकर और કરવા અને તેમનાથી ધમ સાંભળવા, આ ઉગ્ર ભાગ આર્પાદ અને બીજા સમસ્ત નગરનિવાસી માણુસા મૃગાગામ નગરના મધ્ય મધ્યથી એક દિશામાંજ ચાલ્યા જાય છે, એટલા માટે भनसभूहुना मा असाइत थ रह्यो छे. 'तए णं से अंधपुरिसे तं पुरिसं एवं वयासी' આ વાતને સાંભળીને પછી તે જન્માંધ માણસ પોતાના સહાયક માણુસને કહેવા लाग्यो :- 'गच्छामो णं देवाशुप्पिया ! अम्हे त्रि' हे देवानुप्रिय ! आायोगे य त्यां हो, मने 'समणं भगवं जाव पज्जुवासामो' त्यां ने श्रमण लगवान महावीरने वहना नमस्सार भने त्रिविधइयथी पर्युपासना - सेवा उरी 'तए णं से जाइअंधे पुरिसे' मा प्रमाणे ते जन्मांध माणुसनां वयनने सांलजीने ते नेत्रवाणी भाणूस ते भांष भाणुसना 'पुरओ दंडएणं पगढिज्जमाणे पगढिज्जमाणे जणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छ ' हाथमा साउडीनो मे छेडे। શ્રી વિપાક સૂત્ર
SR No.006339
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages809
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vipakshrut
File Size44 MB
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