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________________ - विपाकचन्द्रिका टीका, श्रु. २, अ० १, सुबाहुकुमारवर्णनम् ४१ कुमारः 'अण्णया कयाई' अन्यदा कदाचित् 'चउद्दसटमुदिठ्ठपुण्णमासिणीसु चतुदेश्यष्टम्युद्दिष्टपौर्णमासीषु 'उद्दिष्ट' इति अमावास्या प्रोच्यते, अन्यत् स्पष्टम् । 'जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ' यत्रैव पोषधशाला तत्रैवोपागच्छति 'उवागच्छित्ता' उपागत्य 'पोसहसालं पमज्जइ' पोपधशालां प्रमार्जयति स्वयमेव यतनया,-'पमज्जित्ता' प्रमाय 'उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेइ' उच्चारप्रस्रवणभूमि प्रतिलेखयति निरीक्षते, 'पडिलेहित्ता' प्रतिलेख्य निरीक्ष्य 'दब्भसंथारगं संथरइ' दर्भसंस्तारकं संस्तृणाति, विस्तारयति, संथरित्ता' संस्तीय विस्तार्य 'दब्भसंथारगं दुरुहइ' दुरोहति आरोहति 'दुरुहित्ता' दुरुह्य ‘अट्ठमभत्तं गिण्हइ' अष्टमभक्तं गृह्णाति, 'गिण्डित्ता' गृहीत्वा 'पोसहसालाए पोसहिए' पोषधशालायां पौषधिकः= गृहीतपौषधः 'अट्ठमभत्तिए' अष्टमभक्निकः गृहीताष्टमभक्तः कृतोपवासत्रयः 'पोसह' पौषधं 'पडिजागरमाणे' प्रतिजाग्रत् सेवमानः 'विहरइ' विहरति ॥ मू० १० ॥ कयाई' किसी एक समय 'चउद्दशट्टमुद्दिष्टपुण्णमासिणीसु जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छई' चतुर्दशी अष्टमी अमावास्या और पूर्णमासी के दिन पौषधशाला में आया। 'उवागच्छित्ता पोसहसालं पमज्जइ' आकर सर्वप्रथम यह पौषधशाला को स्वयं प्रमार्जित किया-पूँजा 'पमज्जित्ता उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेइ' पौषधशाला को प्रमार्जित करके फिर यह उच्चार एवं प्रस्रवण भूमि की प्रतिलेखना की । 'पडिलेहित्ता दब्भसंथारगं संथरई' इस भूमि की प्रतिलेखना करने के बाद फिर यह दर्भ का संथारा बिछाया 'संथरित्ता दब्भसंथारगं दुरुहई' बिछाकर उस पर बैठा 'दुरुहित्ता अट्ठमभत्तं गिण्हई' बैठकर अष्ठभक्त-तेले का प्रत्याख्यान किया 'गिण्हित्ता पोसहसालाए पोसहिए अट्ठमभत्तिए पोसहं पडिजागरमाणे विहरइ' अष्टमभक्त 'अण्णया कयाई' । मे सभये, ‘से सुबाहुकुमारे' ते सुमाभार 'चउद्दसटमुदिट्टपुण्णमासिणीसु जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ ' यौहस, भाभ, अमावस्या भने पूनमना हिवसे पौषशणाम माव्या 'उवागच्छित्ता पोसहसालं पमज्जई' भावीन. सौथी पास मा पौषधाने पोते पुंछ प्रभाईन यु ‘पमज्जित्ता उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेइ' पोषाने प्रभान रीन-ने पछी ते अध्या२-प्रखा भूभिर्नु प्रतिवेमन यु 'पडिलेहित्ता दब्भसंथारगं संथरई' ते भूमिनी प्रतिमना ४ पछी तेरे मन सथा। पाथ- भिव्ये.. “संथरित्ता दब्भसंथारगं दुरुहइ' मीछावाने तेना ५२ 81. 'दुरुहित्ता अट्ठमभत्तं गिण्हइ' मेसीन, मटम मातना प्रत्याभ्यान ४ (५२यमा ) 'गिण्हित्ता पोसहसालाए पोसहिए अट्ठमभत्तिए पोसहं पडिजागरमाणे विहरइ' भटम-सतना ५२यमा શ્રી વિપાક સૂત્ર
SR No.006339
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages809
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vipakshrut
File Size44 MB
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