SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 580
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५६२ विपाकश्रुते , निधिं च देवभाण्डागारं देवद्रव्यं च 'अणुवदिस्सामि' अनुवर्धयिष्यामि 'चिकटु' इति कृत्वा = इति संकल्प्य 'उवयाइयं' उपयाचितं 'मन्नौती' बोलवां' इति प्रसिदम् ' उवाइणिए' उपयाचितुं मम श्रेयः, इति पूर्वेण सम्बन्धः । एवं 'संपेहेइ' संप्रेक्षते = मनसि विचारयति, संप्रेक्ष्य = विचार्य 'कल्लं जाव जलंते' कल्ये यावउज्वलिते सूर्योदये सति 'जेणेव सागरदते सत्थवाहे तेणेव उवागच्छ यत्रैव सागरदत्तः सार्थवाहस्तत्रैवोपागच्छति, 'उवागच्छित्ता सागरदत्तं सत्यवाहं एवं amrit ' उपागत्य सागरदत्तं सार्थवाहमेवमवादीत् - ' एवं खलु देवाणुपिया !" एवं खलु हे देवानुप्रिय ! 'तुभेहिं सद्धि' युष्माभिः सार्द्धं 'जाव' यावत् बहूनि वर्षाणि उदारान् मानुष्यकान् भोगभोगान् भुञ्जाना विहरामि, किन्तु अद्य प्रभृति अहं एकतरमपि दारकं वा दारिकां वा 'ण पत्ता' न प्राप्ता 'तं इच्छामि णं देवापिया' तद् इच्छामि खलु हे देवानुप्रिय ! ' तुब्भेहिं अन्भणुण्णाया मैं पूजा के अर्थ, दान के अर्थ, और भोग के अर्थ आप के भंडार को भर दूंगी, 'त्तिक' इस प्रकार 'उवयाइयं उवाइणित्तए' कह कर मैं उस यक्ष से मनौती मनाऊं - इसी में अब मेरा कल्याण है ' एवं संपेहेइ संपेहित्ता' इस प्रकार उस गंगदत्ता सार्थवाही ने विचार किया। विचार करने के पश्चात् 'कल्लं जाव जलते जेणेव सागरदत्ते सत्थवाहे तेणेव उवागच्छइ' जब प्रातःकाल हुआ और सूर्य जब अपनी किरणमाला से खूब चमकने लगा, तब वह गंगदत्ता जहां उसके पति सागरदत्त सेठ थे वहां गई 'उनागच्छित्ता सागरदत्तं सत्थवाहं एवं क्यासी' और जाकर सागरदत्त सार्थवाह से इस प्रकार बोली- ' एवं खलु अहं देवाणुपिया तुम्भेहिं सद्धिं जाव ण पत्ता, कि हे देवानुप्रिय ! मैंने तुम्हारे साथ बहुत वर्षोंसे आज तक उदार कामभोगों को भोगा है, किन्तु फिर च अणुवस्सामि' हु पुन्नर्थे छान भाटे, मने लोग भाटे आापना लंडारने लरी आाधीश, 'त्तिकट्टु' मा प्रमाणे 'उवयाइयं उवाइणित्तए' मानता मानीने हु यक्षर्नु भन भनावीश, तेमां हुवे भाई उदया छे. 'एवं संपेहेई' मा प्रमाणे ते गंगद्वत्ता सार्थवाहीको विचार ये ' संपेहित्ता ' विचार अरीने यछी 'कल्लं जाव जलते जेणेव सागरदत्ते सत्थवाहे तेणेव उवागच्छइ' न्यारे प्रातः अस थयो भने सूर्य જ્યારે પોતાનાં કિરણાથી ખૂબ ચમકવા લાગ્યા, ત્યારે તે ગંગદત્તા જ્યાં પેાતાના यति सागरहन्त शेठ हुता त्यां ग 'उवागच्छित्ता सागरदत्तं सत्थवाहं एवं बयासी' याने माने सागरहुत्त सार्थवाहने या प्रमाणे हेवा बागी 'एवं खलु अहं देवाणुपिया तुम्भेहिं सद्धिं० ण पत्ता' हे हे हेवानुप्रिय ! में मान सुधी तभाश સાથે ઘણાં વર્ષોં સુધી ઉદાર કામભેગાને ભગવ્યા છે, પરંતુ મને કોઇ પ્રકારે આજ શ્રી વિપાક સૂત્ર
SR No.006339
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages809
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vipakshrut
File Size44 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy