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विपाकश्रुते घर्षणेन महादुःखमुत्पादयतीति भावः । 'अप्पेगइए' अप्येककान् ‘सत्थएहि य' शस्त्रकैः गुप्तिप्रभृतिभिः 'जाव' यावत्-यावच्छब्देन-'पिप्पलेहि य' पिप्पलैः= छुरिकाभिः, ' कडाडेहि य' कुठारैः-इति संग्रहः, णहच्छेयणएहि य' नखच्छेदनकैश्च 'नहरणी' इति प्रसिद्धैः 'अंग' शरीरं 'पच्छोल्लावेइ' प्रतक्षयति, ‘पच्छोल्लावित्ता' प्रतक्षय्य 'दन्भेहि य' दर्भश्च 'कुसेहि य' कुशैश्च, दर्भाः समूलाः, कुशा-निर्मूलाः तैः 'उल्लदब्भेहि य' आर्द्रदर्भश्च 'वेढावेई' वेष्टयति वेढावित्ता' वेष्टयित्वा 'आयवंसि' आतपे 'दलयइ' दापयति 'सुक्के समाणे' शुष्कान् सतः तान् दर्भादीन् 'चडचडस्स' चडचडं-शब्दपूर्वकम् 'उप्पाडेइ' उत्पाटयति ॥ मू० ५॥ उन्हें भूमिपर घसीटवाता। 'अप्पेगइए सत्थएहि य जाव णहच्छेयणएहि य अंगं पच्छोल्लावेइ' कितनों का वह गुप्ती आदि शस्त्रों से, यावत् शब्द से छुरी, कुठार, और नहरणियों से शरीर छिन्नभिन्न करा देता। 'पच्छोल्लावित्ता दब्भेहि य कुसेहि य उल्लदब्भेहि य वेढावेईछिन्नभिन्न करने बाद फिर वह हरे २ दों और कुशों से उन्हें वेष्टित करवाता 'वेढावित्ता आयसि दलयइ सुक्के समाणे चडचडस्स उप्पाडेइ' जब वे अच्छी तरह से वेष्टित हो चुकते तब बाद में वह उन्हें धूप में खडा कर देता, जब वे कुश और दर्भ अच्छी तरह शुष्क हो चुकते तब वह उनको उनके शरीर से चड चड शब्द.पूर्वक उखडवाता जिससे चमडी सहित वे निकलने लगते॥
भावार्थ-फिर इस दुर्योधन जेलर ने सिंहरथ राजा के राज्य में बसने वाले जितने भी बदमाश थे-चोर, पारदारिक, व्यभिचारी थे, जितने भी गांठ कतरने वाले एवं राजा के विद्रोही जन थे. जितने भी उधार लेकर कर्ज अदा नहीं करने वाले थे, जितने भी बालकों की जाव णहच्छेयणएहि य अंगं पच्छोल्लावेइ' ari ते शुक्ति मा शोथी, યાવત્ ” શબ્દથી છરી કુઠાર અને નરેણીઓથી શરીરને છિન્ન-ભિન્ન કરાવી દેતા 'पच्छोल्लावित्ता दब्भेहि य कुसेहि य उल्लदब्भेहि य वेढावेइ' छिन्न-भिन्न प्रशने पछी त सीसा- हामथी तेने वाटाणी हेत' वेढावित्ता आयवंसि दलयइ सुक्के समाणे चडचडस्स उप्पाडेइ न्यारे सारी रात वाराणी ता ते પછી તેને સખ્ત તાપ-તડકામાં ઉભા રાખતા હતા, પછી જ્યારે તે દર્ભ સૂકાઈ જતા ત્યારે તેના શરીર પરથી તે ચડચડ શબ્દના ધવની સાથે ઉખેડવામાં આવતું ત્યારે ચામડી સહિત તે નીકળતું હતું.
ભાવાર્થ–પછી એ દુર્યોધન જેલરે સિંહરથ રાજાના રાજ્યમાં વસનારા જેટલા બદમાસ હતા (ચાર હતા) પરસ્ત્રી લંપટ વ્યભિચારી હતા, જેટલા ગંઠી છેડા હતા, રાજાના વિરોધી જન હતા, જેટલા ઉધાર લઈ કરજ નહિ દેનારા હતા, જેટલા
શ્રી વિપાક સૂત્ર