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________________ २७६ विपाकश्रुते कामध्वजाया गणिकाया 'अंतरं' अन्तरम् गृहे प्रवेष्टुमवसरं 'लभेइ' लभते, 'लभित्ता' लब्ध्वा 'कामज्झयाए गणियाए गिह कामध्वजाया गणिकाया गृह 'रहस्सियं' राहसिकं-प्रच्छन्नम् 'अणुप्पविसई' अनुमविशति, 'अणुप्पविसित्ता कामज्झयाए गणियाए सद्धि उरालाई जाब विहरइ' अनुपविश्य कामध्वजया गणिकया साधम् उदारान् यावद् विहरति । इह यावत्पदेन-मानुष्यकान् भोगभोगान् भुखान:'-इति संग्राह्यम् । 'इमं च णं' इतश्च खलु-अस्मिन्नवसरे इत्यर्थः, 'मित्ते राया पहाए जाव' मित्रो राजा स्नातो यावत् 'कयबलिकम्मे 'कृतवलिकर्मा' कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सव्यालंकारविभूसिए' कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्तः सर्वालङ्कारविभूषितः 'मणुस्सवागुराए' मनुष्यवागुरया-मनुष्याणां वागुरा-समूहः, तया 'परिक्खित्ते' परिक्षिप्तःवेष्टितः, 'जेणेच कामज्झयाए गणियाए गिहं तेणेव उवागच्छइ, दारकने 'अण्णया कयाई' किसी एक समय कामज्झयाए गणियाए' कामध्वजा गणिका के घर में प्रवेश करने के लिये 'अंतरं लभेइ' अवकाश प्राप्त कर लिया। ‘लभित्ता कामज्झयाए गणियाए गिहं रहस्सियं अणुप्प विसइ' अवसर पाते ही वह कामध्वजा वेश्या के घर में प्रच्छन्नरीति से घुस गया, 'अणुप्पविसित्ता कामज्झयाए गणियाए सद्धिं उरालाई जाव विहरइ' और घुसकर उसने कामध्वजा गणिका के साथ उदार मनुष्यसंबंधी कामभोगों को भोगने लगा। 'इमं च णं मित्ते राया पहाए जाव कयबलिकम्मे कयकोउयमंगल पायच्छिते सव्वालंकारविभूसिए मणुस्सवागुराए परिविवत्त ' इस अवसर में मित्रराजा स्नान करके कौए आदि पक्षियों को अन्नदेनेरूप बलिकर्म से निपट कर कौतुक मंगल एवं प्रायश्चित्तविधि समाप्त कर और वस्त्र-आभूषण आदि पहिन कयाई' ४ समय कामज्ययाए गणियाए' मत वेश्याना घरमा प्रवेश ४२१॥ भाटे 'अंतरं लभेइ' अ१४भेजवा दीधी. 'लभित्ता कामज्ज्ञयाए गणियाए गिह रहस्सियं अणुविसई' अस२ मतin ते ४५401 वेश्याना घरमा छानी रीत पेसी गयो, 'अणुप्पविसित्ता कामज्झयाए गणियाए सद्धिं उरालाई जाय विहरड, अने सीने मन श्या साथे २ मनुष्यसधा मले गाने से दाय. 'इमं च णं मित्त राया पहाए जाव कयबलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सव्वालंकारविभूसिए मणुस्सवागुराए परिविव' भेटवामा मित्र नान ४शने ॥ ६ पक्षीयाने मन આપવારૂપ બલિ કમથી નિવૃત્ત થઈ, કૌતુક, મંગલ અને પ્રાયશ્ચિત્તવિધિ પૂરી કરીને सन १७-भूषा माह पडेशन समयारीमाथी पीने 'जेणेव कामज्झयाए શ્રી વિપાક સૂત્ર
SR No.006339
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages809
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vipakshrut
File Size44 MB
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