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________________ विपाकचन्द्रिका टीका, श्रु० १, अ० १, मृगापुत्रस्यानागतभववर्णनम् १७७ लक्षवारम् उत्पत्स्यते । ‘से णं' स खलु 'तओ अणंतरं' ततोऽनन्तरम् 'उबट्टित्ता' उद्धृत्य-निर्गत्य 'सुपइटपुरे णयरे' सुप्रतिष्ठपुरे नगरे, 'गोणत्ताए' गोत्वेनवृषभत्वेन-बलीवर्दतयेत्यर्थः, 'पच्चायाहिइ' प्रत्यायास्यति-उत्पत्स्यते । _ 'से णं तत्थ' स खलु तत्र 'उम्मुक्कबालभावे' उन्मुक्तबालभावः= वाल्यावस्थामतिक्रान्तः, 'जोनणगमणुपत्ते' यौवनकमनुप्राप्तः=तारुण्यमुपागतः, 'अन्नया कयाई' अन्यदा कदाचित् कस्मिंश्चिदन्यस्मिन् समये 'पढमपाउसंसि' प्रथमप्रापि-प्रथमवर्षाकाले, 'गंगाए महाणईए' गङ्गाया महानद्याः 'खलीणमट्टियं' खलीनमृत्तिकां-खलीनं-नदीतटं तस्य या मृत्तिका ताम् , 'खणमाणे' खनन् उत्खनन् 'तडीए' तटयां, पतितायामिति शेषः, 'पेल्लिए समाणे' पीडितः सन् 'कालं गए' कालं गतः-मृतः। तत्पश्चात् 'तत्थेव' तत्रैव 'सुपइट्टपुरे' सुप्रतिष्ठपुरे-सुप्रतिष्ठपुरनामके 'णयरे' नगरे 'सेठिकुलंसि पुत्तत्ताए' श्रेष्टिकुले पुत्रतया ‘पञ्चायाइस्सइ' प्रत्यायास्यति-उत्पत्स्यते ॥ मू० २१ ॥ गोणत्ताए पञ्चायाहिइ ' पश्चात् वहां से निकलकर वह सुप्रतिष्ठितपुर नगरमें गोण-बेलरूप से उत्पन्न होगा। ‘से णं तत्थ' वहां पर वह 'उम्मुक्कबालभावे' बाल्यावस्था को छोडकर 'जोनणगमणुपत्ते' जब यौवन अवस्थाको प्राप्त करेगा, तब 'अन्नया कयाई' कोई एक समय 'पहमपाउसंसि' प्राथमिक वर्षकाल में गंगाए महाणईए' गंगामहानदी 'के खलीणमट्टियं खणमाणे तडीए पेल्लिए समाणे कालं गर' तीर की मिट्टी को अपने सींगों से खोदेगा और खोदते२ जब तट उस पर गिर पडेगा तब उसके नीचे दब जाने से उसकी मृत्यु हो जायगी, और मर कर वह 'तत्थेव सुपइटपुरे णयरे सेठिकुलंसि पुत्तत्ताए पच्चायाइस्सइ' वहीं पर सुप्रतिष्ठपुर नगर में किसी एक श्रष्ठी-सेठ के घरमें पुत्ररूप से उत्पन्न होगा। उव्वट्टित्ता सुपइट्ठपुरे णयरे गोणत्ताए पच्चायाहिइ' पछी त्यांथी नीजीन ते सुप्रति ४५२ नगरमा गो-सांढ-४-३५थी उत्पन्न थशे. 'से णं तत्थ ' त्या ते 'उम्मुक्कबालभावे' माल्यावस्थाने पूरी शने 'जोधणगमणुपने न्यारे युवावस्थान प्राप्त ४२शे, त्यारे 'अन्नया कयाई' मे समय पढमपाउसंसि' प्राथमि४ वर्षासभा 'गंगाए महाणईए' ॥ महानदीना 'खलीणमट्टियं खणमाणे तडीए पेल्लिए समाणे कालं गए' तीनी भाटीन पोताना तथा मोशे, मने पाहता ખેદતાં તે તેના ઉપર પડી જશે, અને તેના પર માટી પડવાથી તે દબાઈ જશે, તેથી तेनुं भृत्यु थशे, भने ते भ२५ पाभीने 'तत्थेव सुपइट्ठपुरे णयरे सेठिकुलंसि શ્રી વિપાક સૂત્ર
SR No.006339
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages809
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vipakshrut
File Size44 MB
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