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सुदर्शिनी टीका अ०५ सू०८ 'चक्षुरिन्द्रियसवर'नामकद्वितीयभावनानिरूपणम्९१५ नेन प्रकारेण ' चक्खुइंदियभावणाभाविओ' चक्षुरिन्द्रियभावनाभावितो ' भवइ' भवति ' अंतरप्पा ' अन्तरात्मा जीवः। ततश्च 'मणुणामणुण्णसुभिदुन्भिरागदोंसे' मनोज्ञामनोज्ञसुरभिदुरभिरागद्वेषे, 'पणिहियप्पा' प्रणिहितात्मा ' साहू' साधुः 'मणवयणकायगुत्ते' मनोवचनकायगुप्तः, 'संबुडे ' संवृतः पणिहिइंदिए' प्रणिहितेन्द्रियो 'धम्म' धर्म ' चरेज्ज' चरेत् । एषां पदानां व्याख्याऽस्यैव प्रथमभावनायां द्रष्टव्या। सू० ८॥ प्रकार से ( चक्खु इंदिय भावणाभाविओ अन्तरप्पा ) जब चक्षु इन्द्रिय की भावना से भावित अंतरात्मा होता है तब वह (मणुण्णामणुण्णसुन्भिदुन्भिरागदोसे पणिहियप्पा) मनोज्ञरूप चक्षुइन्द्रिय के अशुभ विषयमें रागद्वेष से रहित होने से व्यवस्थित आत्मावाला (साहू) साधु(मणवयणकायगुत्ते) अपने मन, वचन और कायरूप योगोंको शुभ अशुभके व्यापार से सुरक्षित कर लेता है और (संबुडे ) संवर से युक्त बन कर (पणिहि दिए) अपनी चक्षुइन्द्रिय को वशमें कर के (धम्म) चारित्र रूप धर्म का ( चरेज्ज ) पालक बन जाता है।
भावार्थ-सूत्रकार ने इस सूत्रद्वारा परिग्रह विरमण व्रतकी द्वितीय भावना जो चक्षु इन्द्रिय संवर नामकी है वह कही है। इस भावना में साधु को ऐसा विचार करना सरझाया गया है कि वह इस प्रकार से अपनी चक्षुरिन्द्रिय की परिणति को ऐसी विचारधारा से सुदृढरूप में बांध कर रखे कि जिससे वह चक्षुरिन्द्रिय के विषयभूत मनोज्ञ रूपमें भावणा भाविओ अन्तरप्पा" न्यारे सतरात्मा यक्ष छन्द्रियनी भावनाथी सावित थाय छ त्यारे ते " मणुण्णामणुण्णसुब्भदुन्भिरागदासेपणहयप्पा" भनाज्ञ३५ ચક્ષુ ઈન્દ્રિયના શુભ વિષયમાં અને અમનોજ્ઞરૂપ ચક્ષુ ઈન્દ્રિયના અશુભ વિષયમાં रामद्वषयी २हित थवाथी व्यवस्थित सामावा “साहू" साधु " मणवयणका यगुत्ते " पोताना भन, वयन भने ४५३५ योगाने शुभ अशुभ प्रवृत्तिथी सुरक्षित मनावी से छे भने “ संबुडे " सवरथी युत पनीने “ पणिहिइदिए" घातानी. यक्ष छन्द्रियने भूमा रामाने " धम्म” यात्रिय३५ धम. न! “चरेज" ५६४ मने छ
ભાવાર્થ–સૂત્રકારે આ સૂત્રકાર પરિગ્રહ વિરમણ વ્રતની ચક્ષુઈન્દ્રિય સંવર નામની બીજી ભાવના બતાવી છે. આ ભાવના દ્વારા સાધુને એ વિષય સમજાવવામાં આવ્યું છે કે તે એવી પિતાની ચક્ષુઈન્દ્રિયની પ્રવૃત્તિને એવા પ્રકારની વિચાર ધારાથી બાંધી રાખે કે જેથી ચક્ષુઈન્દ્રિય વડે દષ્ટિગત થતા
શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર