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सुदर्शिनी टीका अ०५ सू०५ संयताबारपाकलस्य स्थितिनिरूपणम ८८५ निष्पकम्पः दिव्याधुपसर्गसंसर्गेऽपि धर्मध्यानादौ निश्चल इत्यर्थः, जहा खुरो' यथा क्षुरः क्षुर इव ' एगधारे चेव ' एकधारश्चैव, यथा क्षुरएकधारस्तथैव साधुरुत्सर्गरूपैकधारो भवति, वर्द्धमानपरिणामधारकइत्यर्थः, जहा अही' यथाऽहिः=अहिरिवसर्प इव ' एगदिट्ठी चेव ' एकदृष्टिश्चैव-मोक्षे बद्धलक्ष्य इत्यर्थः, तथा-' आगासं चेच निरालंबे' आकाशमिव निरालम्बः । यथाऽकाशआलम्बनवर्जितस्तथैव श्रमणोऽपि ग्रामदेशकुलाघालम्बनरहित इत्यर्थः, तथा-' विहगे विव' विहग इव पक्षीय 'सव्वओ' सर्वतः · विप्पमुक्के विप्रमुक्तः निष्परिग्रह इत्यर्थः, तथा-'उरए निप्पकंपे) शून्य घर और शून्य आपण-दुकान के भीतर निर्वात (वायुरहित) प्रदेश में रखे हुए दीपक की प्रज्वलित लौं जैसे निष्प्रकंप होती है उसी प्रकार साधु भी देवादिकृत उपसर्गों के आने पर भी धर्मध्यान आदि में निष्प्रकंप निश्चल बना रहता हैं। (जहाखुरो चेव एगधारे) जैसे क्षुरा ऊस्तरा-एक धार वाला होता है उसी प्रकार साधु भी उत्सर्गरूप एक धार वाला होता है। अर्थात्-साधु के परिणाम प्रकृष्ट विशुद्धि को लिये बढते ही रहते हैं, वे प्रतिपाती परिणामों वाले नहीं होते हैं । (जहा अही चेव एगदिट्ठों) सर्प जिस प्रकार एक दृष्टिवाला होता है उसी प्रकार साधु भी अपने लक्ष्यरूप एक मोक्ष में निबद्ध दृष्टिवाला होता है। (आगासं चे व निरालंबे) आकाशकी तरह वह आलंबन-सहारा से रहित होता है अर्थात् साधु को ग्राम देश, कुल आदी का आलंबन नहीं होता है। वह इन सब ग्रामादि से सर्वथा रहित ही होता है । (विहगे विव सव्वओ विष्पमुक्के ) विहगपक्षी की तरह वह सर्वतः विप्रमुक्त होता है परिग्रह से वर्जित होता व ज्झामणमिव निष्पकंपे" मासी घ२ भने मासी आननी म४२ वायुनी असर રહિત સ્થાનમાં રાખેલ દીવાની સળગતી જવાળા જેમ નિષ્પકંપ ( સ્થિર ) હોય છે તેમ સાધુ પણ દેવાદિકૃત ઉપસર્ગો નડતાં છતાં પણ ધર્મધ્યાન આદિમાં सय २३ छे. “जहा खुरो चेव एगधारे " म खुरा-मस्त्रो मे धारवाये। હોય છે તેમ સાધુ પણ ઉત્સગરૂપી એક ધારવાળે હોય છે–એટલે કે સાધુની મનવૃત્તિ પ્રકૃષ્ટ વિશુદ્ધિઓને માટે વધતી જ રહે છે, તે પ્રતિપાતિ પરિણાभोवाणे डात। नथी. “जहा अहीचेव एगदिट्ठी" म सा५ से टिवाणा હોય છે તેમ સાધુ પણ પિતાના લક્ષ્યરૂપ એક મેક્ષમાંજ લીન દષ્ટિવાળો હોય छ. " आगासं चेव निरालंबे" मशनी म त निशसभी डाय छ सटसे કે સાધુને ગામ, દેશ, કુળ આદિનું અવલંબન હોતું નથી. તે ગ્રામાદિ સમસ્ત भवसागनाथी २हित डाय छे. “विहगे विव सव्वओ विप्पमुक्के" वि61पक्षीनी म ते सब ४ारे भुत होय छ-परियड २हित हाय छे. " कय.
શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર