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________________ सुदर्शिनी टीका अ०५ सू०४ कल्पनीयमशनादिनिरूपणम् ८६३ दिपोडशविधा, एषणा=दशविधा, एषामितरेतरयोगद्वन्द्वः ताभिः 'सुद्धं ' शुद्धम्, तथा - 'ववगयचुयचवियचत्त देहं च ' व्यपगतच्युतच्यावितस्यक्त देहं च तत्र - व्यपगतम् = ओघतश्चेतना पर्यावादचेतनतत्वं प्राप्तम्, च्युतम् = जीवनादिक्रियाभ्यो विनिर्गतम्, च्यावितम् = चेतनापर्यायेभ्यो पृथक्कारितम्, तथा - त्यक्तदेहम् = त्यक्तः = परित्यक्तो जीवेन देहो यस्य तत् जींवसम्बन्धरहितमित्यर्थः, एषां समाहार द्वन्द्वः, तत्, उक्तार्थे स्पष्टयति- ' फासूयं च ' प्रासुकं च = प्रगता असवः प्राणा यस्मात्तत्तथोक्तम्, तथा ' ववगयसंजोगं ' व्यपगत - संयोगम् = संयोजनादोषवर्जितम् ' अजिंगालं' अनङ्गारम् अङ्गारदोषवर्जितम् तथा-' विगयधूमं विगत १ " उत्पादन दोषों से, तथा दशविध एषणा दोषों से जो शुद्ध हो, तथा( वंवगय चुपचवियचत्त देहं च ) जो आहार व्यपगत हो, च्युत हो, च्यावित हो और व्यक्त देह हो, अर्थात् व्यपगत- सामान्यरूप में जो चेतना पर्याय से रहित होकर अचेतनत्व अवस्था को प्राप्त हुआ होसचित्त न हो किन्तु अचित्त हो, च्युत-जीवनादि क्रियाओं से जो सर्वथा रहित हो, च्यावित भृत्यादि द्वारा चेतना पर्यायों से पृथक् कराया गया हो और त्यक्तदेह - जीव के सम्बंध से विहीन हो। इसी बात को सूत्रकार स्पष्ट करते हैं - ( फासूयं ) जिस आहार को साधु अपने उपयोग में लेवे वह प्रामुक होना चाहिये । प्रासुक में " " रहित अर्थ का बोधक है, असु प्राण का वाचक है - अर्थात जो आहार प्राणों से-जीवों से रहित होता है वह प्रासुक है । तथा ( ववगयसंजोगं ) संयोजनादोष से वह आहार रहित होना चाहिये । ( अनिंगालं) अंगार प्र " સાળ પ્રકારના ઉત્પાદન ઢાષાથી, તથા દશ પ્રકારના એષણા દ્વેષથી જે શુદ્ધ होय, तथा ववगयचुय - चवियचत्तदेह च " ? माहार व्यपगत होय, भ्युत હૈાય, ચ્યાવિત હાય, અને ત્યક્ત દેહ હાય, વ્યપગત એટલે સામાન્ય રીતે જે ચેતના પર્યાયથી રહિત થઇને અચેતનત્વ અવસ્થા પામ્યા હાય-ચિત્ત ન હાય, ચ્યુત એટલે જીવનાદિ ક્રિયાએથી સર્વથા રહિત હોય તેવા, ચ્યાવિત એટલે નેાકર આદિ દ્વારા ચેતના પર્યાયથી અલગ કરાવેલ હાય, ત્યક્ત દેહજીવના સંબંધથી રહિત હાય, એવા આહાર સાધુએ લેવા જોઇએ. એ જ वातने सूत्रार स्पष्ट उरे छे - " फासूयं " ने महार साधु पोताना उपयो 66 मां से ते प्रासु होवो लेभे प्रसुक्ष्म " प्र" रहित अर्थनो मोघउ छे, 66 असु " प्राशुनो मोघ छे, भेटते है ? आहार प्रशोथी - वोथी रहित होय छे ते प्रसु महार उडेवाय छे. तथा " ववगयसंजोय " संयोन्ना घोषथी ते माहार रहित होवो लेई . " अणिंगालं " अंगार होषथी रहित શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
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