SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 895
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुदर्शिनी टीका४ अ० ५ सू०१ परिग्रहविमणनिरूपणम् ८३७ श्रमणो भवति । एतदेव वर्ण्यते-' आरंभ परिग्गहाओ ' आरम्भपरिग्रहात्-आरम्भः =पृथिव्याधुपमर्दः, परिग्रहः बाह्याभ्यन्तरभेदाद् द्विविधः, तत्र-बाह्यः परिग्रहः धर्मोपकरणातिरिक्तभिन्नवस्तुग्रहणं, धर्मापकरणेषु मूर्छा च । आन्तरः परिग्रहस्तु-मिथ्याविरतिकषायप्रमादाशुभयोगरूपः, अनयोः समाहारद्वन्द्वः, तस्माद् 'बिरए ' विरतो यः स श्रमणो भवति । तथा यः ‘कोहमाणमायालोमा' क्रोधमानमायालोभात् , अत्र-समाहारत्वादेकत्वम् ‘विरए' विरतः स श्रमणो भवति । अर्थकादि संख्यया मिथ्यात्वादि लक्षणाऽऽभ्यन्तरपरिग्रह विरतिं विशदयनाह'एगे' इत्यादि, 'एगे असंजमे ' एकोऽसंयमः-अविरतिलक्षणः, 'दो चेव रागदोसा' द्वौ चैव रागद्वेषौ । तथा-'तिण्णि य' त्रयश्च ‘दंडा' दण्डाः, तथा-त्रीणि 'गारवा य' गौरवाणि च, 'गुत्तीओ' गुप्तयः, 'तिण्णि य ' तिस्रश्च । तथागुणों से युक्त होता है वही श्रमण है । यह श्रमण ( आरंभपरिग्गहा ओ विरए ) आरंभ और परिग्रह से सर्वथा विरत होता है। पृथिवी आदि जीवों का उपमर्दन जिन क्रियाओं से होता है वे सब आरंभ है। परिग्रह बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से दो प्रकार का होता है । धर्मोपकरणों से भिन्न वस्तुओं का अपनाना-पास में रखना-तथा धर्मापकरणों पर मूर्छाभाव-ममत्वभाव रखना यह बाह्यपरिग्रह है। मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, प्रमाद और अशुभयोग, ये सब अभ्यन्तर परिग्रह हैं। श्रमण वही हो सकता है जो आरंभ और बाह्याभ्यन्तर परिग्रह से सर्वथा विरत होता है । ( विरए कोहमाणलोभा ) इसी तरह जो क्रोध, मान, माया और लोभ, इनसे विरत होता है वही श्रमण कहलाता है। ( एगे असंजमे, दो चेव रागदोसा, तिण्णि य दंडा-गारवाय, गुत्तीओ तिपिण, तिण्णि य विराहणाओं, चत्तारिकसाया, झाणसण्णा, विगहा तहा छ मे २८ श्रम छ. ते श्रम “ आरंभपरिग्गहाओ विरए ” मा भने પરિગ્રહથી તદ્દન વિરક્ત હોય છે. પૃથિવી આદિ નું ઉપમર્દન જે ક્રિયાઓથી થાય છે તે સઘળાને આરંભ કહે છે. પરિગ્રહના બે ભેદ છે–બાહ્ય પરિગ્રહ અને અભ્યાન્તર પરિગ્રહ ધર્મોપકરણો સિવાયની વસ્તુઓ પાસે રાખવી તથા ધમેપક ઉપર મૂચ્છભાવ. મમત્વભાવ રાખવો તે બાહ્યપરિગ્રહ છે. મિથ્યાત્વ, અવિરતિ, કષાય, પ્રમાદ અને અશુભ યોગ એ બધા આભ્યાન્તર પરિગ્રહ છે. જે બાહ્ય અને અભ્યન્તર પરિગ્રહથી સર્વથા વિરક્ત હોય છે તે श्रम यश छ. "विरए कोहमाणमायालोमा” से प्रमाणे ओघ, भान, भाया मने सामथी २डित डोय छे ते श्रम उपाय छे. “ एगे असंजमे, दोचेव रागदासा, तिण्णियदंडा-गारवाय, गुत्तीओ तिण्णि, तिण्णि य विराहणाओ, શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy