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________________ सुदर्शिनी टीका अ० ४ सू० ११ अध्ययनोपसंहारः ८३३ प्रसिद्धं सिद्धवरसासणमिणं सिद्धवरशासन मिदम् ' आघवियं' आख्यातं 9 6 6 " ' समत्तं ' समाप्तम् । 4 पूर्ववद् बोध्या । सू० ११॥ सुदेसियं ' सुदेशितं ' पसत्थं ' प्रशस्तं ' चउत्थं संवरदारं ' चतुर्थ संवरद्वारं इति ब्रवीमि । अस्य सूत्रस्य व्याख्याऽ तिमि ॥ इति श्री विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ - प्रसिद्धवाचकपश्चदशभाषाकलितललितकला पालापक- प्रविशुद्धगद्यपद्यनेकग्रन्थनिर्मापक- वादिमानमर्दकश्रीशाहू छत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त 'जैनशास्त्राचार्य ' पदभूषितकोल्हापुरराजगुरु - बालब्रह्मचारि- जैनाचार्य - जैनधर्म दिवाकरपूज्यश्री घासीलालवतिविरचितायां श्री प्रश्नव्याकरणसूत्रस्य सुदर्शन्या ख्यायां व्याख्यायां संवरात्मा के द्वीतीये-भागे ब्रह्मचर्यनामकं चतुर्थ संवरद्वारं समाप्तम् ॥ ४ ॥ वीरेण ) ज्ञातवंश में उत्पन्न हुए मुनि भगवान् महावीर ने (पण्णवियं) इस चतुर्थ संवरद्वार को शिष्यों के लिये सामान्यरूप से समझाया है । ( परुवियं ) बाद में भेद-प्रभेद पूर्वक उसका कथन किया है । (पसिद्धं) इसीलिये जिनवचन में यह प्रसिद्ध हुआ है। तथा ( सिद्धवरसासणमिणं ) भूतकाल में जितने भी सिद्ध हो चुके हैं उनका यह प्रधान आज्ञारूप शासन है । ( आववियं) ऐसा भगवान् महावीर प्रभुने इसके विषय में सर्वभाव से कहा है और ( सुदेसियं ) देवों मनुजों तथा असुरों से युक्त परिषदा में इसका उपदेश दिया है । ( पसत्थं ) समस्त प्राणियों का हितकारक होने से प्रशस्त-मंगलमय है ( चउत्थं संवरदारं समन्तं ) यह चतुर्थ संवरद्वार समाप्त हुआ ( तिबेमि ) हे जंबू ! जैसा मैंने भगवान से सुना है वैसा ही मैं कहता हूं । 66 वीरे " पण्णवियं " मा योथा द्वारने शिष्याने भाटे सामान्य ३ये समन्नव्यु छे. " परूवियं " त्यार माह लेह अले: पूर्व तेनु अथन यु छे. " पसिद्धं सिद्धवरसासणमिणं તે કારણે જિનવચનમાં તે પ્રસિદ્ધ થયેલ છે. તથા ભૂતકાળમાં જેટલા સિદ્ધ થઈ ગયા છે તેમનું આ મુખ્ય આજ્ઞા રૂપશાસન छे. " आघवियं " मेवु लगवान महावीरे तेने विषे सर्वे भने " 'सुदेसियं દેવો, માણસા તથા અસુરાથી યુક્ત "" लावधी उधुं छे પરિષદામાં તેના उपदेश व्याप्यो छे. “पसत्थ" समस्त प्राणीमोने मारे हित २४ होवाथी प्रशस्त भगणभय छे.“चउत्थ ं संवरदार समत्तं” मा योथु संवरद्वार समाप्त थयु. "त्तिबेमि" હે જ»! જેવું ભગવાનને મુખે સાંભળ્યું હતું તેવુ જ તેનું કથન કરૂ છું. શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર ܕܕ "
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
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