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________________ सुदर्शिनी टीका अ०४ सू०७ 'स्त्रीकथाविरति'नामकद्वितीयभावनानिरूपणम् ८११ लासौ-स्त्रीणां शृङ्गारभावनितौ चेष्टाविशेषौ, ताभ्यां संप्रयुक्ताः,तथा-'हाससिंगारलोइयकहा ' तत्र हासशृङ्गारलौकिककथा हास्यः हास्यस्थायिभावो रसविशेषः, श्रृङ्गारः रतिस्थायिभावोरसविशेषः, एतत्प्रधाना या लौकिकीकथा सा तथा, 'मोहजणणी' मोहजननी-मोहोदीरिका कथा न बक्तव्या । तथा-'आवाहविवाहवरकहावि य' आवाहविहारबरकथापि च=आवाह: अभिनवपरिणीतस्य वधूवरस्य आनयनम् , विवाहः पाणिग्रहणम् , तत्प्रधाना या वरकथा-परिणेतृकथा साऽपि च न वक्तव्या। तथा-' इत्थीणं ' स्त्रीणां 'मुभगदुब्भगकहा ' मुभगदुर्भगकथा "इ. ग्नेत्रनासिकाकपालादियुक्ता च स्त्री दुर्भगा भवति " इत्यादिरूपा कथा वा न स्त्रियों के बीच बैठकर कभी नहीं कहना चाहिये, क्यों कि ऐसी कथाओं के कहने में रागभाव की संयुक्तता साधु के जानी जाती है। इससे उसके ब्रह्मचर्यव्रत में दोष आता है। इसी तरह (हाससिंगारलोइयकहा) जो लौकिक कथा हास्य और शृंगाररस प्रधान हो, तथा (मोहजणणी) मोह की जनक हो वह भी नहीं कहना चाहिये । तथा (आवाहविवाहबरकहाविय ) जो कथा नव दंपतियों के आगमन से संबंध रखती हों, अर्थात्-जिस कथा का विषय नव परिणित वधू और वर के संबंध को लिये हुए तथा जिस कथा में विवाह संबंधी चर्चा हो, ऐसी आवाह और विवाह प्रधान वाली वरकथा भी साधु को नहीं कहनी चाहिये । इसी तरह (इत्थीणं वा सुभगदुब्भगकहा ) स्त्रियों संबंधी सुभग दुर्भग कथा भी नहीं कहना चाहिये, अर्थात्-'इस प्रकारके नेत्र, नासिका और कपाल आदिवाली स्त्री सुभग होती है और इस प्रकारके नेत्र. नासिका, યુક્ત હોય તેવી કથાઓ સાધુએ સ્ત્રીઓની વચ્ચે બેસીને કદી પણ કહેવી જોઈએ નહીં, કારણ કે એવી કથાઓ કહેવામાં રાગ ભાવની સંયુક્તતા सावी तय छे. तेथी प्रहाय व्रतमा होष मावी. 14 छ. २ रीते " हास सिंगारलोइयकहा” 2 ll ४था २५ मने ॥२ २२ प्रधान डाय, तथा “ मोहजणणी" मोड पेही ४२ना२ डाय, ते ५Y ४डवी ने नही तथा “ आवाहविवाहवरकहाविय " रे ४था न पतियाना मागमन સાથે સંબંધ ધરાવતી હોય, એટલે કે જે કથાને વિષય નવ પરિણિત વધુ અને વરના સંબંધમાં હોય, તથા જે કથામાં વિવાહ સંબંધી ચર્ચા આવતી હાય, એવી આવાહ અને વિવાહ પ્રધાન વર કથા પણ સાધુએ કહેવી જોઈએ नही. १ प्रमाणे " इत्थीणं वा सुभगदुब्भगकहा” सीमा समधी सुभम, વિરળ કથાઓ પણ કહેવી જોઈએ નહીં, એટલે કે “આ પ્રકારનાં નેત્ર, નાક અને કપાળવાળી સ્ત્રી સુભગ હોય છે અને આ પ્રકારનાં નેત્ર, નાક અને શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
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