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प्रश्रव्याकरणसूत्रे स्तेनः, कस्यापि श्रुतविशेषस्यापूर्व व्याख्यानं कस्यापि मुखादुपश्रुत्य जनसमक्षे खकीयत्वेन तं ख्यापयन् साधुर्भावस्तेन उच्यते । तथा यः साधुः ‘सद्दकरे' शब्दकरः प्रहररात्रिगमनानन्तर यो महता महता शब्देन भापते स शब्दकर उच्यते । ' झंझकरे,' झञ्झाकर येन कार्येण गणस्य भेदा भवति तत्कार्यकारी 'कलहकरे' कलहकरः वाचिकभण्डनकारी ' वेरकरे ' वैरकरः परस्परशत्रुभावोत्पादकः, तथा-' विकहकरे' विकथाकरः स्त्र्यादिकथाकारी, 'असमाहिकारगे' असमाधिकारकः-स्वपरचित्तोद्वेगकारकः, तथा-'सया' सदा 'अप्पमाणभोई' अपने में अविद्यमान उत्कृष्ट आचारवत्ता स्थापित की है अतः जो ऐसे आचारस्तेन होते हैं उनसे इस महाव्रत की आराधना नहीं हो सकती है, ( भावतेणे ) जो श्रुतज्ञान आदि भाव की चोरी करता है वह भावस्तेन कहलाता है, जैसे किसी के मुख से किसी साधु का श्रुत विशेषसंबंधी अपूर्व व्याख्यान सुनकर कहता है कि यह व्याख्यान तो मेरा ही दिया हुआ है, इस प्रकार का भावस्तेन साधु भी इस महाव्रतकी आराधना नहीं कर सकता है। इसी तरह (सद्दकरे) जो साधु एक प्रहर रात्रि के चले जाने के बाद बड़े जोर २ से बोलता हैं उसका नाम शब्दकर है। (झंझकरे ) जिस कार्य से गण में भेद हो जाय उस काम को करने वाला साधु झंझाकर है। (कलहकरे ) आपस में जो वाकूकलह कर बैठता है उसका नाम कलहकर है, ( वेरकरे ) परस्पर में जो शत्रुता का उत्पादक होता है वह वैरकर है, (विकहकरे ) स्त्री आदि विकथाओं को करनेवाला साधु विकथाकर है, (असमाहिकरे)
અવિદ્યમાન છે તે ઉત્કૃષ્ટ આચારવત્તાનું આરોપણ કર્યું છે. તેથી જે સાધુઓ એવાં આચાર ચાર હોય છે તેમનાથી આ મહાવ્રતની આરાધના થઈ શકતી नथी. "भावतेणे" श्रतज्ञान माहि मावनी थारी ४२ छ त माक्यार उपाय છે. જેમ કે કેઈના મોઢે કોઈ સાધુનું કોઈ શાસ્ત્ર સંબંધી અપૂર્વ વ્યાખ્યાન સાંભળીને જે સાધુ એમકહે કે આ વ્યાખ્યાન તે મે જ આપેલું છે.” આ પ્રકારને ભાવચેર साधु ५५ मानतनी माराधना ४२शश नथी. मे प्रमाणे “सहकरे" श५६४२જે સાધુ એક પ્રહર રાત્રિ પ્રસાર થયા પછી ઘણું જોરથી બોલે છે તેને શબ્દકર
3 छ, “झझकरे" यथा समूडमा सहमा थाय ते य ४२॥२ साधु ॐआ४२ ४वाय छे, “ कलहकरे' २।५सभा से पा४१3 3री मेसे छे तने स४२ ४ छ, “ वेरकरे' मापसमा २ पेह! ४२शवनार डाय ते २. ३२ छ“बिकहकरे " सी माह विश्थामे ४२ना२ साधुन विश्था४२ ४३
શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર