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________________ ६७४ प्रश्रव्याकरणसूत्रे सर्वकालं सर्वदा 'वजणिज्ज' वर्जनीय त्याज्यं लोके 'होइ' भवति, ‘एवं विहं ' एवं विधं — दुहओ' उभयतः लोकतः शास्त्रतश्च, ' उवयारमइकंत' उपचार मतिक्रान्तं व्यवहारविरुद्धं 'सच्चंपि' सत्यमपि न वत्तव्यं ' न वक्तव्यम् । 'अह' अथ 'केरिसयं' कीदृशं तु 'पुणाई' पुनः 'सच्चं भासियव्वं' सत्यं भाषितव्यम् ? आह-'जं तं' यत्तत् 'दव्वेहिं ' द्रव्यैः-त्रिकालवर्तिभिः पुद्गलादिमिः ‘पज्जवेहिं ' पर्यवैः नवपुराणादिभिः क्रमवर्तिभिर्धर्मैः, च-पुनः 'गुणेहिं ' गुणैः सह भूतैवर्णादिभिः, 'कम्मेहिं' कर्मभिः कृष्यादि व्यापारैः, सब कारणों को लेकर भी कभी ऐसे वचन नहीं कहना चाहिये कि तुम्हारा मातृवंश अच्छा नहीं है, पितृवंश तुम्हारा शुद्ध नहीं है, तुममे सौंदर्य नहीं है, तुम व्याधि संपन्न हो-कुष्ठी आदि हो । तात्पर्य-इसका यही हैं कि मातृवंशादि से विहीन तथा कुष्ठादि संपन्न व्यक्तियों से ऐसे वचन नहीं कहना चाहिये । क्यों कि इस प्रकार के वचनों से उन्हें दुःख होता है । (दुहओ उवयारमइक्कतं) इसी तरह जो वचन लोक तथा आगम, ऐसे दोनों की अपेक्षा व्यवहार विरुद्ध हों (एवंविहंःसच्चं पिन वत्तव्वं ) ऐसे वचन सत्य होने पर भी नहीं बोलना चाहिये । ( अहकेरिसयं पुणाई सच्चं तु भासियव्वं ) अब सूत्रकार यह कहते है कि साधुजनों को-महाव्रताराधक संयमी जनों को-किस प्रकार के सत्यवचन बोलना चाहिये-(जं तं) जो वचन ( दव्वेहिं ) त्रिकालवी पुद्गलादि द्रव्यों से (पज्जवेहिं) नवीन पुरानी आदि क्रमवर्ती पर्यायों से (गुणेहिं) द्रव्य के साथ अविनामाव रूप संबंध रखने वाले वर्णादि गुणों વચન ન કહેવાં જોઈએ કે “ તમારે માતૃવંશ સારો નથી, તમારા પિતૃવંશ શુદ્ધ નથી, તમારામાં સૌંદર્ય નથી, તમે વ્યાધિયુક્ત કોઢ વગેરે રોગયુક્તછે ” તેનું તાત્પર્ય એ છે કે જેને માતૃવંશ આદિ હીન હોય, કોઢ આદિ રોગોથી જે યુક્ત હોય તેને તેવા વચને કહેવાં જોઈએ નહીં, કારણ કે તેવાં क्यनाथी तेने हुम थाय छ-" दुहओ अवयारमइक्कंत” . प्रमाणे रे पयन स तथा माम, मनेनी अपेक्षा व्यव९४२ वि३ हाय " एवं विहं सच्चंपि न वत्तव्वं ” सेवा वयन सत्य डाय ते! ५५५ मोसन नही “ अहकेरिसय पुणाइ सच्चंतु भासियव्वं ” वे सूत्रा२ मे मताछ है સાધુજનેએ-મહાવ્રતારાધક સંયમીજનોએ કેવા પ્રકારનાં સત્યવચન બોલવા नये. “जं तं" क्यन “दव्वेहि" निसती युद्धमा द्रव्याथी “पज्जवेहिं” नवी जुनी मा भवती पर्यायाथी “ गुणेहिं ” द्रव्यनी साथे मविनामा१३५-५५ मना२ १ गुणेथी "कम्मे हिं" या व्यापा२ ३५ શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
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