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सुदशिंनो टोका अ० १ सू०९ भावनास्वरूपनिरूपणभू -दीनतावर्जितः ' अकलुणे' अकरुणः=न्यग्वृत्तिरहितः, 'अविसाई ' अविषादी'भिक्षालाभो भविष्यति न वे 'त्यादि विषादवजितः, तथा-' अपरितंतजोगी' अपरितान्तयोगी-अलाभादिषु तन्तनाादि शब्दवर्जितः, तथा-'जयणघडण करण चरिय विनयगुणजोगसंपउत्ते' यतन घटनकरणचरितविनयगुणयोगसंप्रयुक्तः, तत्र यतनं-प्राप्तेषु संयमयोगेषु उद्यमः, घटनं अप्राप्ति संजम-योगमाप्तिचेष्टनम् , एतद्वयं कुरुते यः स यतनघटनकरणः, तथा-चरितः सेवितो विनयो येन स चरितविनयः, तथा गुणयोगेन-समाधिगुणयोगेन संप्रयुक्तो यः सः-गुणयोग संप्रयुक्तः, एतेषां कर्मधारयः, एतादृशो ' भिक्खू ' भिक्षुः साधुः 'भिक्खेसणाए' प्रति उसे प्रकटित नहीं होना चाहिये । (अदीणे ) अदीन होना चाहिये. दीनता के भाव से रहित रहना चाहिये अपने व्यवहार से दाता के प्रति उसे दीनता का भाव प्रकट नहीं करना चाहिये। ( अकलुणे) अकरुण-ओछीवृत्ति से रहित होना चाहिये। उसकी वृत्ति ऐसी न हो कि जिस से वह दाता के दृष्टि में ओछी प्रतीत हो । ( अविसाई ) विषाद से उसे रहित होना चाहिये-भिक्षा का लाभ होगा या नहीं होगा इस प्रकार का विषाद उसे नहीं करना चाहिये । (अप. रितंतजोंगी ) अपरितांतयोगी-अलाभ आदि की अवस्था में उसे तनतनाट नहीं करना चाहिये। ( जयण-घडण-करण-चरिय-विनयगुणजोगसंपउत्ते ) प्राप्त संयमयोग में उद्यम करना इसका नाम यतन है इस यतन को तथा अप्राप्त संयमयोग को प्राप्ति में चेष्ठा करना इसका नाम घटन है, इस घटन को जो करने वाला है वह यतन घटन करण है तथा विनयगुण को पहिले से जिसने आचरित किया है एवं समाधि
न नही. “ अदीणे " महीन २२ मे-हीनताना माथी २डित २२ જોઈએ–પિતાના વ્યવહારથી દાતા આગળ તેણે દીનતાનો ભાવ પ્રગટ કરે नये नही. " अकलुणे” २५४२९१-साछी वृत्तिथी २डित नसे., तेनी वृत्ति मेवी न वी नये ते हातानी दृष्टि साछी ०४९य, “अविसाई" તેણે વિષાદ રહિત રહેવું જોઈએ. ભિક્ષાલાભ મળશે કે નહીં એ વિષાદ तेणे ४२व मे नही “ अपरितंतजोगी” अपरित तयोगी-महान साहि अवस्थामा ५ तेणे तनतनाट न ४२वो नये. " जयण, घडण-करण-चरिय -विनयजोगसंपउत्ते” प्राप्त सयम योगमा धम. ४२वे। तेने 'यतन' ४ छ. २॥ यतनने तथा मास सयम योगनी प्रालिनी येष्टा ४२वी तेने धटनકહે છે. આ ઘટનને જે કરનાર છે તે વતનધટના છે. તથા વિનયગુણને પહેલેથી જ જેમણે આચર્યો છે તથા સમાધિગુણના વેગથી જે યુક્ત બનેલ
શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર