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________________ सुदर्शिनी टीका अ० ५ सू० ५ परिग्रहो यत्फलं ददाति तनिरूपणम् ५४५ 'परिग्सहस्स' परिग्रहस्य ' फलविवागो' फलविपाकः 'इहलोइओ' इहलौकिका, मनुष्यभवापेक्षया, ' परलोइओ' पारलौकिकः, नरकतिर्यग्गत्याद्यपेक्षया 'अप्पसुहो' अल्पसुखः-अल्पसुखं यस्मिन् स तथोक्तः, 'बहुदुक्खो' बहुदुःखः-बहूनि दुःखानि यस्मिन् स तथोक्तः, ' महन्भओ' महाभयः ‘बहुरयप्पगाढो' बहुरजः प्रगाढः बहुरजः-प्रभूतकर्म प्रगाढं-दुर्मोचं यस्मिन् स तथोक्तः, दारुणो रौद्रः, 'ककसो' कर्कशः कठिनः, 'असाओ' अशातः-अशातवेदनीयरूपः अस्ति, एष परिग्रहः ‘वाससहस्सेहि ' वर्षसहस्रः = अनेकपल्योपमसागरोपमकालैरुपभोगेन ' मुच्चइ ' मुच्यते । 'न अवेयइत्ता अत्थिहु मोक्खोत्ति 'न अवे दयित्वा ऽस्ति खलु मोक्षः परिग्रहफलमनुपभुज्य नास्ति मोक्षः 'त्ति एवमाहंसु' सागरोपम प्रमाणकालतक घूमता रहता है। (एसो सो परिग्गहस्सफलविवागो) परिग्रह का यह फलविपाक ( इहलोइओ) मनुष्यभव की अपेक्षा तथा (परलोइओ) परलोक-नरक-तिर्यंच गति की अपेक्षा (अप्पसुहो) अल्पसुख वाला तथा ( बहुदुःखो) बहु दुःखवाला है। (महाभओ) महाभयंकर है। (बहुरयप्पगाढो) इसमें जो प्रभूत कर्मरूप रज का बंध होता है वह प्रगाढ-बड़ी मुश्किल से दूर किया जाय, ऐसे होता है। तथा ( दारूणो ) यह फलरूप विपाक दारूण-भयानक (कक्कसो) कर्कश-कठिन एवं (असाओ)अशात अशातवेदनीयरूप होता है। (वाससहस्से हिं)इसी परिग्रह रूप पाप का फल अनेक पल्योपम एवं सागरोपम प्रमाण कालतक भोगने से (मुच्चइ) छूटता है। (अवेइत्ता) विना इसका फल भोगे उन जीवों को (न अस्थि मोक्खो ) मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती लभ्या ४२ छ. "एसो सो परिग्गहस्स फलविवागो” परियडन। म सवि ५। " इहलोइओ" मनुष्य अपनी अपेक्षा तथा “परलोइओ" ५२सो नरगति भने तिर्थ यातिनी अपेक्षा “ अप्पसुहो” २५६५सुम पाणे तथा "बहुदुक्खो" पधारे हुवाणी छ, “ महब्भ ओ" मा लय ४२ छ, “ बहुरयप्पगाढो" तभा २ विघुस भ३५ २०४नी डाय छे ते अगद-महा भुरी निवारी शय तवा-डाय छ, तथा " दारुणो" ते ३१३५ विघा ६॥३-लय'४२ “कक्कसो” ४४१-४ठिन, अने " असाओ" सात-शात वहनीय३५ सय छे. “ वाससहस्से हिं" ते परि३॥ ५॥५५॥ मने पक्ष्यो५म मने साशयम प्रमाण ४१७॥ सुधी मागवायी । “मुच्चइ” वो तेमाथी छूटी श छ. “ अवेयइत्ता " तेनु ३० सोमव्या विना वोने “न अत्थी मोक्खो" भाक्षनी प्राप्ति थती नथी. “ति एवमाहंसु"ते प्रा२तुं प्रयन શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
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