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________________ ४२७ सुदर्शिनीटीका अ. ४ सू. ७ बलदेववासुदेवस्वरूपनिरूपणम् 'रिउ सहस्समाणमहणा, रिपुसहस्रमानमथना:= रिपुसहस्राणां मानं= गर्वं मध्नन्ति ये ते तथा शत्रुदविध्वंसकाः 'साणुकोसा ' सानुक्रोशा:= आश्रितरक्षकाः 'अमच्छरी' अमत्सरिणः परशुभस्याद्वेषिणः -- परसुखेन सुखिन इत्यर्थः ' अचवला ' अचपलाः- मनोवाक्काय चपलतारहिता, अचण्डाः = अकारणक्रोधवर्जिताः 'मियमंजुलप्पलावा' मितमब्जुलमलापाः - मितः परिमितः सार्थकः मजुज्लः = मनोहरः प्रलापः = आलापो येषां ते तथा परिमितसत्यमधुर भाषिणः ' हसियगंभीर महुरभणिया ' हसितगम्भीरमधुर भणिताः - हसितम् = हास्ययुक्तं गम्भीरं सारगर्भ मधुरं च भणितं= भाषणं येषां ते तथा ' अब्भुवगयवच्छला' अभ्युपगतवत्सला:-अभ्युपगतेषुसमीपमागतेषु वत्सलाः स्नेहयुक्ताः 'सरण्णा ' शरण्याः शरणे साधवःशरणागतरक्षकाः 'लक्खणवंजणगुणोववेया' लक्षणव्यञ्जनगुणोपेताः = तत्र लक्षणानि= अपराजित शत्रुओं के मान को गलित कर देते हैं, अर्थात् प्रबल से भी प्रबल विरोधियों के वे विनाशक होते हैं, तथा ( रिउ सहस्समाणमद्दणा ) हजारों शत्रुओं के मान को जो देखते २ क्षणभर में नष्ट कर डालते हैं। एवं (साणुकोसा ) अपने आश्रित व्यक्तियों की सदा रक्षण करते रहते हैं (अमच्छरी ) दूसरों के शुभ से जिनके चित्त में थोड़ा सा भी द्वेष नहीं जगता है, अर्थात् परके सुखसे सुखी होते हैं (अचवला) मन, वचन एवं कायकी चंचलता से जो रहित होते हैं (अचंडा) विना कारण के जिन्हें क्रोध नहीं आता है (मियमंजुलप्पलावा) मित - सार्थक तथा मनोहर जिनका आलाप होता है, अर्थात् जो परिमित सत्य मधुरभाषी होते हैं । (हसियगंभीर महुर भणिया) जो हास्ययुक्त, सारगर्भित और मधुर भाषण करते हैं (अन्भुवयवच्छला) जो अपने निकट आये हुए प्राणियोंके साथ 66 શત્રુઓનું માનમન કરી નાખે છે, એટલે કે પ્રખળમાં પ્રખળ શત્રુના પણ તેએ નાશ कुश्नार होय छे, तथा " रिउ सहस्समाणमद्दणा " मरो शत्रुमने ? लेत लेताभांक्षणुवारभां भडात उरे छे, अने थे रीते तेभनुं मानमर्दन अरे छे, “ साणुकोसा " घोताना माश्रितानुं सहा रक्षण उरे छे, " अमच्चरी ” अन्यने साल थतो જોઈને જેમના ચિત્તમાં સહેજ પણ દ્વેષ થતા નથી, એટલે કે તેઓ પરના सुभे सुखी थनार होय छे, "अचवला" भन, वयन अयानी यं यजताथी ने रहित होय छे, " अचंडा " विना अरशु प्रेमने अध थतो नथी, मियमंजुलप्पलावा ” મિત-સાક તથા મનેાહર જેમનાં વચન હેાય છે, અથવા જે પરિમિત સત્ય મધુર વાણી વાળા હોય છે, ” જે હાસ્યયુક્ત સારગર્ભિત અને મધુર ભાષણ કરે પાસે આવતા પ્રાણીએ તરફ્ સ્નેહાળ "" 66 हसियगंभीर महुरभणिया 66 છે " ने पोतानी अब्भुवगयवच्छला હાય છે, सरण्णा ” શરણે આવેલની શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર 66
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
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