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________________ सुदर्शिनी टीका अ० ४ सू० ३ चक्रवर्त्यादि वर्णनम् ४०३ य' ग्रथिताश्च-विषयगुम्फितमानसाः, तथा ' अइमुच्छियाय ' अतिमूर्छिताश्च= अतिमोहातिशयमुपगताः 'अबंभे ओसण्णा' अब्रह्मणि अवसन्नाः मैथुने समासक्ताः, 'तामसेण भावेण अणुमुक्का' तामसेन भावेन=अनुमुक्ताः, तामसेन भावेन= अज्ञानप्रवर्तितेन परिणामेन अनुमुक्ताः आवद्धाः सन्तः, अत्र-' अन्नोन्नं सेव माणा' इत्यग्रेण सम्बन्धः अन्योन्य परस्परं पुरुषैः सह स्त्रियः, स्त्रीभिः सह पुरुषा इत्यर्थः सेवमानाः अब्रह्मसमाचरन्तः, 'दंसणचरित्तमोहस्स ' दर्शनचारित्रमोहस्य' अत्र कर्मणः सम्बन्धमात्रविवक्षायां षष्ठो, दर्शनमोहनीयचारित्रमोहनीयरूपं द्विविधं कर्म ‘पंजर पिव' पञ्जरमिव करेंति' कुर्वन्ति-अब्रह्मसेविनो देवादयः खलु दर्शनमोहनीय-चारित्रमोहनीयरूपपञ्जरे स्वात्मानं नयन्तीति भावः ॥३॥ साम्प्रतं चक्रवादीन् वर्णयति — भुज्जो असुरसुर ' इत्यादि मूलम्-भुजो असुर-सुर-तिरिय-मणुय-भोगरति-विहार संपउत्ता य चकवट्टी-सुर-नरवाइ-सक्या, सुरवरव्व देवलोए सेवन करने की आज्ञा से गुंफित मन होकर (अइमुच्छिया य) उन विषयों में अत्यंत मोहको प्राप्त होते रहते हैं और (अबंभे ओसण्णा) अब्रह्म के सेवन करने के लिये अत्यंत आसक्त हो जाते हैं। (तामसेणभावेणं अणुमुक्का ) तामसभाव से-अज्ञानप्रवर्तित परिणाम से-आबद्ध होकर परस्पर में एक दूसरे के साथ पुरुष के साथ स्त्री, और स्त्री के साथ पुरुष रमण करने लग जाते हैं। इस तरह ( अन्नोन्नं सेवमाणा) इस अब्रह्मरूप पापकर्मकों सेवन करने वाले ये देवादिक अपनी आत्मा को (दसणचरित्तमोहस्स पंजरं पि व करेंति )पंजर के जैसे दर्शन मोहनीय एवं चारित्र मोहनीय कर्म में निक्षिप्त कर देते हैं। अर्थात् इन कर्मों का बंध करते हैं । सू० ३ ॥ तेरा व्याण थाय छे. तेथी “ गढियाय " विषयानु सेवन ४२वानी माशामi दीन ने “ अइमुच्छियाय,, तमनु भन ते विषये। प्रत्ये सत्यात भाडासत थय४२ छ, भने “ अबंभेओसण्णा" ते भैथुनर्नु सेवन ४२वाने त्यात मासत थाय छे. भावेण अणुमुक्का" तमस माथी-मज्ञान प्रवर्तित परिणामथा જકડાઈને પરસ્પરમાં-પુરુષની સાથે સ્ત્રી, અને સ્ત્રીની સાથે પુરુષ-રમણ કરવા सालय छे. २॥ शते " अन्नोन्नं सेवमाण" PAL PAब्रह्मयय३५ ५।५४भर्नु सेवन ४२॥२ पाहि पाताना मामाने "दसणचरित्तमोहस्स पंजर पि व करेंति'પિંજરા જેવાં દર્શનમોહનીય અને ચારિત્ર મોહનીય કર્મમાં નાખી દે છે. मेटसेत भनि। म धे छ ॥ सू० 3 ॥ શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
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