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________________ ३८२ प्रश्नव्याकरणसूत्रे ईर्ष्याबुद्धयापश्यन्तः, ततश्च — अप्पयं' आत्मानं ' कयंत ' कृतान्तं कर्तव्यं च 'निंदंता' निन्दन्तः निन्दां कुर्वन्तः, ' इह य पुरे कडाई कम्माइं पावगाई' इह= लोके पुरा-जन्मान्तरे च कृतानि पापकानि-पापानि कर्माणि 'परिवयंता' परिवदन्तः निन्दन्तः 'विमणसो' विमनसः दीनाः सन्तः ‘सोएण डज्झमाणा' शोकेन दह्यमानाः अभीष्टवस्तूनामप्राप्तिदुःखेन सन्तप्यमानाः सन्तः 'परिभूयाहुँति' परिभूताः जनैरनादृतादुःखमाप्ताश्च भवन्ति । तथा ' सत्तपरिवज्जिया य' सत्त्वपरिवर्जिताश्च मनोबलहीनाः 'छोभा' क्षौम्याः निस्सहायत्वात्परिभवनीयाः, 'सिप्पकलासमयसत्थपरिवज्जिया' शिल्पकलासमयशास्त्रपरिवजिताः तत्र शिल्पं संपत्ति, सत्कार, सन्मान, तथा भोजन, इनके विशेष प्रकारों की समुदय विधिको ईर्ष्याभाव से देखते हैं और अपने भाग्यकी आत्माकी तथा अपने पापकारी कर्तव्य की निंदा करते हैं । हमने (इह य) इस संसार में (पुरे ) पूर्वभव में (पावगाई कडाइं ) पापकर्म किये हैं उनका ही यह फल हमें भोगने को मिला है इस प्रकार ( परिवयंता ) दूसरों से कहते हुए (विमणसो) स्वयं दीन होकर (सोएण इज्झमाणा) शोक से जलते हुए (परिभूया ) दुःखी (हुति ) होते हैं अर्थात् अभीष्ट वस्तु की अप्राप्ति के दुःख से निरन्तर सन्तप्यमान होते हुए भीतर ही भीतर खेद खीन्न बने हुए ये दूसरों के द्वारा अनाहत होते रहते हैं एवं दाखों को भोगते रहते हैं। तथा (सत्तपरिवज्जिया य) मनोबल से रहित बने हुए ये (छोन्भा) निस्सहाय होनेके कारण हरएक व्यक्ति के द्वारा अनादरणीय होते रहते हैं । तथा (सिप्प ) चित्रादिकों को સન્માન, તથા ભેજન, તથા તેને સદ્ભાગ્ય પ્રત્યે તેઓ ઈર્ષ્યા ભાવથી જોવે છે, તથા પિતાના ભાગ્યની, આત્માની તથા પિતાનાં પાપકૃત્યોની નિંદા કરે . सभे " इहय" । संसारमा “पुरे" पूर्व लवमा " पावगाई कडाई" પાપકર્મો કર્યા છે, એનું જ આ ફળ અમારે ભેગવવું પડે છે,’ એ પ્રમાણે "परिवयंता" भीतने उता “ विमणसो” पाते हीन थईने “सोएण डज्झमाणा" शोथी “ परिभूया" : " हुति” थाय छे. मेटसे छित વસ્તુની પ્રાપ્તિ ન થવાના દુઃખથી નિરંતર સંતાપયુક્ત થઈને મનમાં ને મનમાં ઉદ્વિગ્ન બનીને તેને બીજા લેકે દ્વારા તિરસ્કૃત થયા કરે છે અને દુઃખ लोय॥ छ. तथा “ सत्तपरिवज्जिया य” भने।थी २डित वा ते " छोभा " असहाय पाने ॥२॥णे ४२४ व्यति ॥२॥ मना२jीय (ति२२४त) च्या ४२ . तथा " सिप्प" यिवाहिनी यन। ४२वाना विज्ञानथी, “कला" શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
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