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________________ ११६ प्रश्रव्याकरणसूत्रे मारय, 'विच्छुभ ' विक्षिप-कूपादौ प्रक्षिप, ‘उच्छुभ' उत् सिप-उर्ध्वक्षिप 'आकडू' आकर्ष=कचादिकं गृहीत्वाकर्षय कण्टकाकीर्ण भूमौ घर्षयेत्यर्थः, 'विकट्ट' विकर्ष अधो मुखं कृत्वा घर्षय । एतादृशी वेदनां दत्त्वा नारकान् प्रति वदति, 'किं ण जंपसि' किं न जल्पसि-कथं न वदसि हे पापिन् 'सराहि' स्मर स्मरणं कुरु ।' कियाई' कृतानि = पूर्वभवसमाचरितानि, 'दुकयाई' दुष्कृतानि प्राणातिपातादीनि 'पावकम्माइं' पापकर्माणि । एवं अनेन प्रकारेण ' वयणमहप्पगन्भो' वचनमहापगल्भः वचनैः नरकपालवाग्भिः महाप्रगल्भः अतिदुर्धर्षः भयावह-इत्यर्थः - संपडिसुयसहसंकुलो ' संप्रतिश्रुतशब्दसंकुल: संपतिश्रुतः प्रतिध्वनितः यः शब्दः, तेन संकुल: व्याप्तः । 'सया' सदा सर्वदा 'उत्तासओ' उत्त्रासका परमत्रासजनकः 'महाणगरडज्ज्ञमाणसरिसो' महानगरदह्यमानसदृशः दह्यमानस्य प्रज्वल्यमानस्य महानगरस्य यः शब्दस्तेन तुल्यः, एतादृशः 'तहियं' तत्र नरके-'निरयगोयराणं' निरयगोचराणां-निरयगौः नरकभूमिः, तत्र चरन्ति =नारकत्रासार्थ विचरन्ति ये ते निरयगोचराः परमाधार्मिकास्तेषाम् , तथाऊपर इसको उछाल दो। ( आकड ) बाल आदि पकड़ कर इसे कण्टकाकीर्ण भूमि में खूब खेंचों। (विकड्ढ) इसे ओंधा मुख करके जमीन पर खूब रगड़ो । इस प्रकार की वेदना देने की बात कहकर फिर वह उन नारकियों से कहता है-(किं ण जंपसि) हे पापी । तू बोलता क्यों नहीं है ( सराहि पावकम्माइं कियाइं दुक्याई ) पूर्वभव में समाचरित प्राणातिपात आदि अपने पापकर्मों को अब तू याद कर ले। ( एवं) इस प्रकार का ( वयणमहप्पगम्भो नरकपाल की वाणियों द्वारा अतिदुर्धर्ष भयंकर बना हुआ, ( संपडिसुयसहसंकुलो) प्रतिध्वनि से व्याप्त हुआ, (सया उत्तासओ) सर्वदा दूसरों को त्रास जनक एवं (महाणगरडज्झ माणसरिसो) दह्यमान महानगर के शब्द के जैसा उद्भूत हुआ(निरभाशिl मा ५२ ते ५४.31 "विच्छभ" यूवा वर्गमा तने ३, "उच्छम" तेने ये अछामो, “आकड्ढ" तेने व साहिन ५४0 injी भीनमा घस31, “विकड्ढ” तेने भान ५२ ५५ २होतो. 241 प्रभारी वहना पडयावानी वात शन ते ना२४ी वान ४ छ " किंण जंपसि" हे पाथी! तुं मासत म नथी ? “सराहि पावकम्माइं कियाइं दुकयाई" पूर्वसभा पायरेस प्रतिपात या पायनितु या ४२ से. "एव" मा ४२. "वयणमहप्पगब्भो" २४ानी पी 43 अतिदुप-मय४२ गती, "संपडिसुयसहसंकुलो" ५वाथी व्यास थो, “सया उत्तासओ" सह loni शासन, भने “महाणगरडज्झमाणसरिसो" mi भडानाभाथी मक्ता राय શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
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