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________________ प्रश्नव्याकरणसूत्रे 'अणाहे ' अनाथान=स्वाम्यभावात् , ' अबंधवे' अवान्धवान्-सहायकाभावात् , 'कम्मनिगडबद्धे' कर्मनिगडबद्धान्-कर्माण्येव निगडानि बन्धकत्वात् तैर्बद्धान् फर्मराहित्याभावात् , 'अकुसलपरिणाममंदबुद्धिजणदुविजाणए' अकुशलपरिणाममन्दबुद्धिजनदुर्विज्ञेयान्-कुशल: तत्त्वातत्त्वविवेकसम्पन्नः, परिणामः अन्तकरणं येषां ते कुशलपरिणामाः, न कुशलपरिणामाः = अकुशलपरिणामाः आत्मौपम्यदृष्टिविकला इत्यर्थः मन्दा-हिंसाजनितनरकनिगोदाधनन्तभवभ्रमणकटुकफलविवेचनशून्या-बुद्धिर्येषां ते मन्दबुद्धयस्ते च जना इति अकुशलपरिये पृथिव्यादि जीव भगकर जा नहीं सकते, इनके आश्रित त्रस जीव यदि भगकर कहीं जावें भी तो कोई ऐसा नहीं है जो इन्हें शरण प्रदान करे अतःशरणदाता के अभाव से ये अशरण हैं । (अणाहे ) कोई इनका स्वामी नहीं है इसलिये अपने स्वामी के अभाव से ये विचारे अनाथ हैं। (अबंधवे ) इनकी कष्ट में कोई सहायता करने वाला नहीं है इसलिये सहायक के अभाव से ये अबान्धव हैं । (कम्मनिगडबंधे ) उस प्रकार के कर्मों का सद्भाव होने के कारण कर्मरूप निगड-बेडी से ये बंधे हुएहैं। ( अकुसल-परिणाम-मंदबुद्धिजणदुधिजाणए.) अकुशल परिणाम वाले मंदबुद्धि जनों द्वारा ये दुर्विज्ञेय हैं। तत्त्व और अतत्व का विवेक जिनके अन्तःकरण में जगता है वे कुशल परिणाम वाले जीव हैं । इस तरह का कुशल परिणाम जिनका नहीं हैं अर्थात् सब जीवों के ऊपर जिनकी दृष्टि आत्मौपम्यवाली नहीं हैं और जो इस बात को भी नहीं जानते हैं कि हिंसा करने से नरक निगोद आदि अनंत भवों में भ्रमण करने रूप कटुकफल को શકતાં નથી, તેમને આશ્રિત ત્રસજીવ જે ભાગીને કોઈપણ જગ્યાએ જાય તે પણ કોઈ એવું નથી કે જે તેને શરણ આપે, તેથી શરણદાતાને અભાવે તેઓ अश२५ छ. “अणाहे" ४ तेभने। स्वामी नथी, तेथी स्वामी समावे तमा मिया। मनाथ छे. “ अबंधवे" मा तेभने सहाय ४२ना२ ७ नथी, तथी सहायने मला तसा समांध छ. “कम्मनिगडबंधे" ते ४२i भीनी सद्भाव थवाने ४२ ४३पी मेडी 43 तेस। धाय छे. “अकुसलपरिणाम-मंदबुद्धिजणदुविजाणए” मधुर परिणाम भभुद्धियुत सी દ્વારા તે દુવિય-સમજવું–મુશ્કેલ છે. જેમના અંતઃકરણમાં તત્વ અને અતત્વને વિવેક જાગૃત થાય છે તે કુશલ પરિણામવાળા જીવ છે. આ પ્રકારનું કુશલ પરિણામ જેમનું હેતું નથી, એટલે કે સઘળા જીવે ઉપર જેમની દષ્ટિ આત્મવતું નથી, અને જે એ વાતને પણ જાણતા નથી કે હિંસા કરવાથી નરક, નિગદ આદિ અનંત ભેમાં ભ્રમણ કરવા રૂપ કડવાં ફળે ભેગવવા પડે છે, શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
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