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पुद्गल - परावर्तन का स्वरूप खूब स्पष्ट समझाया गया है, इस से भव्य जीवो को मनुष्य भव की दुर्लभता का भान अच्छा होता है । इस विषय के सुनलेने के वाद स्वयं धन्नाजी को इस प्रकार विचार उत्पन्न हुए
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संसार में प्राणिमात्र जन्म, जरा, मृत्यु के कारण दुःखी हैं । गर्भावस्था, वाल्यावस्था, यौवनावस्था व वृद्वावस्था आदि में दुःखों की परम्परा के कारण आत्मा को शान्ति नहीं मिलती, फिर भी अज्ञानात्मा वात, पित्त, कफ, वीर्य तथा रक्त के प्राशन समान कामभोगों की तरफ आकृष्ट हो जाय तो उस जैसा दयनीय संसार में और कौन होगा ? क्यों कि संसार में दुःखों से छुडाकर आश्रय देनेवाला कोई नहीं है, यदि आश्रय-दाता है तो एक वीतराग धर्म ही है | अतः आत्म-कल्याण के लिये मुझे धर्म के नायक भगवान की शरण ही ग्रहण करनी चाहिये । इस प्रकार विचार कर के महावीर प्रभु से अर्ज की कि हे भगवन् ! अपनी माता से आज्ञा प्राप्त कर इस असार संसार को त्यागकर आप के समीप दीक्षित बनूंगा । धन्नाजी की इस भावना को सुनकर प्रभुने यही कहा कि जैसा सुख हो वैसा करो परन्तु धर्म कार्य में ढील न करो । यह आदेश प्रभु के वचन में निर्ममता प्रगट करता है ।
यहाँ यह भी हमें शिक्षा मिलती है कि धनाजी इतने वय आदिसे बडे होते हुए भी कितने विनीत हैं जो धर्म के काम में भी माता को पूछते हैं, क्यों कि संसार में प्रत्येक काम माता-पिता की आज्ञा से ही करना परम नीति है। माता और पुत्र का प्रेम, दोनों के परस्पर हुई बातों से हम ठीक तरह जान सकते हैं ऐसे प्रेम बन्धन से बन्धे भी वे उसी समय आज्ञा प्राप्तकर महावीर के समीप कल्याणकारी संयम को धारण करते हैं । दीर्घ काल के मोह बन्धन को व अखूट धन को तथा बत्तीस स्त्रियों को त्याग कर उन्होंने हमें संसार के बन्धन से मुक्त होने का बोध दिया है ।
संसार को छोडकर संयमी बनने के पश्चात् मुनियों को कैसे २ परीषह उपसर्ग सहने पडते है तद्विषयक ज्ञान धन्ना अणगार के जीवन से हमें मिलता है ।
શ્રી અનુત્તરોપપાતિક સૂત્ર