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________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०५ सुदर्शनश्रेष्ठोवर्णनम् भिषेक पूतात्मानः जलेनाभिषेकः स्नानं, तेन पूतः शुद्ध आत्मा येषां ते, पाणिनः · अविग्धेणं ' अविघ्नेन प्रतिबन्धरहितेन 'सग्गं' स्वर्ग गच्छन्ति । ततः खलु स सुदर्शनः शुकस्य शुकनाम्नः परिव्राजकस्य अन्तिके समीपे धर्म शौचमूलकं शुकोक्तधर्म, श्रुत्वा ' हढे . हृष्टः प्रमुदितः सन् शुकस्यान्तिके शौचमूलकं धर्म गृह्णाति । सांख्यमतं स्वीकुरुतेस्म शुक परिव्राजकस्य पर्युपासको जातः, शुकमेव धर्माचार्यत्वेन मन्यतेस्म, धर्म गृहीत्वा स सुदर्शनः परिव्राजकान् प्रतिदि. वसं विपुलेन निस्तीर्णेन अशनपानखाद्यस्वायेन चतुर्विधाऽऽहारेण, तथा वस्त्र सज्जो पुढवीए आसिप्पड़, तओ पच्छा सुद्धेण वारिणा पक्खालिजइ) हे देवानुप्रिय ! जो भी हमारा कोई कर चरण, कमण्डलु आदिअशुचि हो जाती है उसे पहिले शुद्ध नवीन मृत्तिका से हम मांज लेते हैं और बाद में पवित्र जल से धो लेते हैं- (तोतं असुई सुई भवइ, एवं खलु जीवा जलाभिसेयपूयप्पाणे अविग्घेणं सग्गं गच्छंति ) इस तरह वह अशुचि पदार्थ शुचि-पवित्र हो जाता है । इसी प्रकार जीव भी जलाभिषेक से जलस्नान से पवित्रात्मा बन कर बहुत जल्दी विना किसी रुकावट के स्वर्ग को पहुँच जाते हैं । (तएणं से सुदंसणे सुयस्स अंतिए धम्म सोच्चा हट्टे सुयस्स अंतिए सोयमूलयं धम्मं गिण्हइ ) इस प्रकार वे सुदर्शन शुक के पास धर्म का श्रवण कर बहुत अधिक हर्षित हुए। बाद में उन्होंने शुक से शौच मूलक धर्म अंगीकार कर लिया। (गेण्हित्ता परिव्वायए विपुलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थपरिग्गहेणं परिलाभेमाणे जाव विहरइ ) शौचमूलक धर्म देवाणुप्पिया ? किं चि असुइ भवइ त सव्व सज्जो पुढवीए आसिप्पइ, तओ पच्छा सुध्धेण वारिणा पक्खालिज्जइ ) 3 हेपानुप्रिय ! समा२। ७, ५५ भ.. ડળું વગેરે અપવિત્ર થઈ જાય છે તે પહેલાં તેને નવીન માટીથી અમે ઉટકી से छीमे. मने त्यार पछी शुद्ध ५ थी साई समे छीस. ( तओ त असुई सुई भवद एवं खलु जीवा जलाभिसेय पूयप्पाणे अविग्घेण सग्गं गच्छति ) से प्रभारी ते अपवित्र मा पवित्र 25 mय छे. माशते ७१ પણ પાણીથી સ્નાન કરીને પવિત્રાત્મા થઈને સત્વરે કોઈ પણ જાતના અટ. ४१ मुश्दी १५२ २वगे पडेयी नय छे. (तएण' से सुदंसणे सुयस्स अंतिए धम्म' सोचा ह सुयस्स ऑतिए सोयमूलय धम्म गिण्हइ) सरीत તે સુદર્શન નગર શેઠ શુકની પાસેથી ધર્મનુ શ્રમણ કરીને ખૂબજ હર્ષ પામ્યા मन तनी पासेथी तभी शीय भूख धर्म स्वीय (गेण्हित्ता परिव्वायए विपुलेणं असणपाणखाइमसाइमेण वत्थपरिगहेण परिलाभे माणे जाव विह શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૨
SR No.006333
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages846
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size47 MB
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