________________
ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे टीका-'तस्स णं' इत्यादि । तस्य खलु रैवतकस्य अदूरसामंते अत्र खलु नन्दनबनं नामोद्यानमासीत् तत् कीदृशमित्याह-'सव्योउयपुष्फफलसमिद्धे' सर्वत् कपुष्पफलसमृद्धम् सर्वेषाम् ऋतूनां पुष्पैः फलैश्च समृद्धं = समन्वितम् , ' रम्मे' रम्य रमणीयं 'नंदनवनप्रकाशं' नन्दनवनतुल्यम् , प्रासादीयम् ४, तस्य खलूछानस्य ‘बहुमज्झदेसभाए' बहुमध्यदेशभागे 'सुरप्पिए नाम' सुरप्रियं नाम, 'जक्खाययणे ' यक्षायतनम् ' होत्था ' आसीत् तत् कीदृशमित्याह-'दिवे' दिव्यं रम्यं, वर्णका वर्णनग्रन्थोऽन्यत्राभिहितः। अन्यत् सुगमम् ॥ सू०४ ॥ मूलम्-तत्थ णं बारवईए नयरीए कण्हे नामं वासुदेवे
तस्मणं रेवयगस्स'-इत्यादि। टीकार्थ-(तस्स णं रेवयगस्स) उस रैवतक पर्वतके (अदूरसामंते) न बहुत दूर और न पास किन्तु उचित स्थान पर ( एस्थणं नंदणवणे नामं उज्जाणे होत्था ) यहां एक नंदन वन नाम का उद्यान था ( सव्वो उय पुप्फफलसमिद्धे ) यह समस्त ऋतुओं संबन्धी पुष्पों और फलों से समृद्ध रहता था। ( रम्मे गंदणवणप्पगासे ) नंदनवन के जैसा था। (पासाइए ४ ) दर्शक जन के मन को प्रमोदित करने वाला था। सुभग प्रियदर्शन आदि और भी विशेषण इसमें लगा लेना चाहिये यही बात " पासाईए" के साथ रहे हुए यह ४ पद सूचित करता है । ( तस्स णं उज्जाणस्स बहुमज्झदेसभाए सुरप्पिए नामं जक्खाययणे होत्था दिव्वे वनओ) उस उद्यान के ठीक बीचो बीच के स्थान में सुरप्रिय नाम का यक्षायतन था। यह दिव्य था । इसका और वर्णन दूसरी जगह किया हुआ है । सूत्र " ४७
(तस्सण रेवयगस्स ) त्याहि
साथ-( तस्स ण रेग्यगस ) रेवत: ५ थी ( अदूर सामंते) मयत ६२ ५ नहि तभी सत्यत न० ५९ ४वाय तम (एत्थणं नंदणवणे नाम उज्जाणे होत्था ) त्यां नहनवन' नामे मे धान ; (सव्वोउय पुप्फफल समिद्धे) ते ५धी *तुआना पु०॥ भने साथी समृद्ध ( रम्मे गंदणवणप्पगासे) नहनवन तु. (पासाइए ) शीना भनने इपित ४२नार हेतु. (पासाइए ४) ५४नी माग यार न मां भूयो छ । सेभ सूबे છે કે સુભગ પ્રિયદર્શન વગેરે બીજા પણ વિશેષ અહીં સમજવા જોઈએ (तस्स ण उज्जाणस्स बहुमज्झदेसभाए सुरप्पिए नामं जक्खाययण होत्था दिवे वन्नओ) धाननी ५२राम२ वरये सु२प्रिय नामे यक्षतुं मायतन तुं. ते हव्य तु. तेनुं न अन्यत्र ४२९१मा मायुं छे. ॥ सू."४" ॥
શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૨