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________________ ५१४ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे 'तितिक्षसे दैन्यभावरहितउपशमदशां न भजसि 'अहियासेसि' अध्यास्से शुभाध्यवसायेन निश्चलकायतया नावतिष्ठसे, हे वत्स ! स्वकल्याणार्थ परीष. होपसर्गादिकं सर्वथा सहनीयमित्याशयः। ततः खलु तस्य मेघस्य अनगा रस्य श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्तिके एतमर्थ श्रुत्वा निशम्य शुभैः परिणामः प्रशस्तैरध्यवसायलेश्याभिर्विशुध्यमानाभिस्तदावरणीयानां मतिज्ञानभेदरूपाणां जातिस्मरणावरणीयानां वर्मणां 'खओवसमेणं' क्षयोपशमेन उदितानां क्षयः, अनुदितानां विष्कम्भितोदयत्वम्-उपशमः, तेन 'ईहाचूह मग्गणगवेसण' ईहाऽपोहमार्गणगवेषणम् ईहा-सदर्थाभिमुखो वितर्कः, अपोहः= सेसि) तन्तनादि शब्द रहित होकर तुम क्षमा पूर्वक शान्त भाव धारण नहीं कर सकते हो, दैन्य भाव रहित उपशम अवस्था को प्राप्त नहीं हो सकते हो ? शुभ अध्यवसाय से निश्चल शरीर होकर नहीं ठहर सकते हो? हे वत्स ! अपने कल्याण के लिये श्रमण निग्रन्थ साधु को आये हुए परीषह और उपसर्ग सब सहन करना चाहिये । (तएणं तस्स मेहस्स अणगारस्स समणस्स भगवओ महावीररस अंतिए एयममु सोच्चा णि सम्म) इस प्रकार उस मेघकुमार को श्रमण भगवान महावीर के मुखारविन्द से इस अर्थ को सुनकर और उसे हृदय में अवधारित कर (सुभेहिं परिणामेहिं पसत्थेहिं अज्झवसाणेहिं लेस्साहि विसुज्झमाणीहिं तयावर णिजकम्माणं खओवसमेणं) शुभ परिणामों से प्रशस्त अध्यवसायों से विशुध्यमान लेश्याओं से मतिज्ञानवरण कर्म के भेदरूप जातिस्मरणावरणीय कर्मों के क्षयोपशम से (ईहावूहमग्गणगवेसणं) ईहा, पोह, છેડીને ક્ષમાશીલ થઈને શાંત ભાવ ધારણ કરી શકતા નથી ? અને દૈન્ય રહિત થઈને ઉપશમ અવસ્થા પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી? શુભ અધ્યવસાયથી સ્થિરતા મેળવીને સ્થિર બની શકતા નથી? હે વત્સ પિતાના કલ્યાણ માટે શ્રમણ નિગ્રંથ સાધુને वनमा मावता परीष मने पस मधाने साउन ४२ नये. (तए णं तस्स मेहस्स अणगारस्स समणस्स भगवओ महावीररस अंतिए एयमह सोच्चा णिसम्म) 41 प्रभागे भेषमारे श्रम मावान महावीरना भुमभणथी । क्यना सामन्यां मने तमने इत्यमा सारी पेठे घाण प्रशन (सुभेहिं परिणा. मेहिं पसत्थेहिं अज्झवसाणेहिं लेस्साहिं विमुज्झमाणीहिं तयावरणिजकम्माणं खओवसमेणं) शुभ परिणामोथी प्रशस्त अयवसायोथी विशुद्धमान सेश्याम्याथी, भतिज्ञानावर मना ले ३५ ति भ२१२gीय उभाना क्षयोपशमी, (ईहावूह मागणगवेसणं ) पs भाorey, गवेषयु ( करेमाणस्स ) रतi (सन्नि શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૧
SR No.006332
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages764
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size45 MB
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