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________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणीटीका. अ १ स. ३९ मेघमुनेरातध्यानप्ररूपणम् ४५१ प्रादुष्प्रभातायां किंचित्प्रकाशयुक्तायां ग्जन्यां यावत्तेजसा ज्वलति-उदिते सूर्य इत्यर्थः, श्रमणं भगवन्तं महावीरमापृच्छय युनरपि अगारमध्ये वस्तुमितिकृत्वा-इति मनसि अवधार्य एवं संप्रेक्षते-पर्यालोचयति विचार यतीत्यर्थः, संप्रेक्ष्य ‘अदुहवसदृमाणसगए' आत दुःखार्त-वशार्तमान सगतः, तत्र-आतम् आर्तध्यानगतं दुग्वात दुःखपीडितं, वशात नवदीक्षितत्वेन साधुहस्तसंघटनादिरूपान् परीषहान सोदुमसमर्थत्वात् खेदवशेन आर्त व्यकुलं मानसं-चित्तं गतः प्राप्तः, संयमपालने विचलितचित्तवान् इत्यर्थः, अतएव निरयपडिरूवियं' निरयपतिरूपिकांनरकसदृशीं संयमारतिजनित दुःखसाधर्म्यात् तां 'रयणि' रजनीं रात्रि क्षपयति व्यत्येति क्षपयित्वा 'कल्लं' कल्ये, द्वितीयदिवसे, 'पाउप्पभायाए' प्रादुःप्रभातायां संजातमभातायां सुविमलायां सुप्रकाशवयां रजन्यांराव्यवसानसमये इत्यर्थः, यावत् तेजसा ज्वलतिउदिते मूर्य सकलखलु मम कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव तेयसा जलंते समणं भगवं महावीरं आपुच्छित्ता पुणरवि अगारमझं वसित्तए) अतः मुझे अब इसी में अच्छा है कि मैं रजनी के प्रभात प्राय: होने पर और सूर्य के उदित होने पर श्रमण भगवान् महावीर से पूछ कर पुनः अपने घर में रहूँ। (ति कट्ट एवं संपेहेइ) इस प्रकार मेघकुमारने अपने मन में विचार किया। (संपेहित्ता अदुहवसट्टमाणसगए) विचार करके आतध्यान से युक्त दुःख से पीडित और नवीन दीक्षित होने के कारण साधुओं के हस्तादि संघटन से उत्पन्न परीपहों को सहन करने में असमर्थता की वजह से खेद व्याकुल मन वाले उस मेघकुमारने (णिरयपडिरूवियं च णं तं रयणि खवेइ) संयम में अरति भाव को उत्पन्न करने के कारण नरक जैसी उस रात्रि को जिस किसी प्रकार से समाप्त किया। (खविना कल्लं. पाउप्पभायाए रयणीए जाव तेयसा जलंते समणं भगवं महावीरं आपुच्छित्ता पुणरवि अगारमज्झ सित्तए) मेरो भाडित भने माम माय છે કે રાત્રિ પસાર થાય અને ભગવાન સૂર્ય ઉદય પામે ત્યારે ભગવાન મહાવીરને पूछीन ५२ पोताना घरभा २ (तिकटु एवं संपेहेइ) मा रीते मेघमारे पोताना भनमा विद्या२ ज्यो. (संपेहिता अट्ठदुहवसट्टमाणसगए) पियार કરીને આધ્યાનથી યુક્ત, દુઃખથી પીડાએલે, નવીન દીક્ષિત હોવાને લીધે સાધુએના હાથ વગેરેની અથડામણથી ઉત્પન્ન પરીષહોને સહન કરવામાં અસામને सीध मे युत तेभ व्याण मनवा भेघमारे (णिरयपडिरूवियं च णं तं रयणि खवेइ) सयममा मतिमा उत्पन्न ४२१॥ मस न२४ वी ते त्रिने શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૧
SR No.006332
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages764
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size45 MB
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