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________________ अनगारधर्मामृतवर्षिटीका अ. १.स ३४ मेधकुमारदीक्षोत्सवनिरूपणम् ___३९७ युक्ता-इव चेष्टितविद्याधरयुगलसंयोजितेव नाम्, 'अच्चिसहस्समालणीयं अचिः सहस्रमालनीयाम्-अर्चिषां-किरणानां सहस्रैः सूर्यकिरणैरित्यर्थः, मालनीया परिचारणीया सेवनीया विविधरत्नखचितत्वात्सर्यकिरणाधिक काशयुक्ता, तामित्यर्थः। 'ख्वगसहस्सकलियं' रूपकसहस्रकलितां-रूपकाणि=सुन्दरचित्राणि तेषां सहस्रः कलितां=युक्तां 'भिसमाणं' भासमानां रत्नादिप्रकाशयुक्तां 'भिब्भिसमाणं' विभासमानाम्-अतिशयेन दीप्यमानां विविध शिल्पकलारचितत्वात 'चक्खुलोयणलेस्सं' वक्षुर्लोकनलेश्यां-चक्षुः कर्तृक लोकने-विलोकने सति चक्षु लिंशतीव=श्लिष्यतीव यत्र मा चक्षुर्लोकनलेश्या दर्शनीयत्वातिशयात् तां पश्य चक्षुर्न निवर्ततेइति भावः। 'सुहफासं' सुखम्पा सुखजनकस्पर्शयुक्तां 'सस्सिरीयरूव' सश्रीकरूपाम् अपूर्वशोभासंपन्नां, सिग्छ' शीघ्रम् आलस्यरहितं 'तुरिय' त्वरित कार्यान्तरवर्जितं, 'चवलं' चपलं-द्रुततरं, 'वेगितं-सहवेगं सर्वथा मनोवाक् काय व्यापारयुक्तं यथास्यात्तथा 'पुरिससहस्सवाहिणि' पुरुषसहस्रवाहिनीं= मालणीय) विविध प्रकार के रत्नों से खचित होने के कारण सूर्य किरणों से भी अधिक प्रकाश युक्त, (रूवगसहस्सकलिय) सहस्र सुन्दर चित्रों से विराजित, (भिसमाणं) रत्नादिकों के प्रकाश से चमकीली, (भिभिसमाणं) विविध शिल्पकलाओं से अतिशय रूप से देदीप्यमान (चक्खुल्लोयणलेम्स) देखने पर मानो आखों को खंजती सी हो ऐसी (सुहफासं ) मुख जनक स्पर्शवाली (सस्सिरीयरूव) अपूर्व शोभा से संपन्न, ऐसी (सियं) शिबिका को--पालखीको (सिग्धं) शीध्र आलस्य रहित होकर (तुरियं) किसी और कार्य को न करते हुए (चवलं) जल्दी से जल्दी (वेइयं) मन, वचन, काय को एकाग्रता पूर्वक (उचढवेह) उपस्थित करो। याद रहे यह पालखी (पुरिससहस्सवाहिणि) (अचिसहस्समालणीयं) भने प्रा२ना २! sal eोपाथी सूयः रिसाथी ५ वधु प्रशस युत, (रूवगमहस्सकलियं) । सुन्४२ चित्रोथी पुस्त, (भिसमाणं) २त्नी वगेरेना प्रशथी यमरती, (भिभिसमाणं) मने तनी शिल्पदामाथी २यित होवान बी अतीव प्रहीत यती, ( चक्खुल्लोयणलेस्सं ) ( मुहफासं) वाम २५शवाजी, (सस्सिरियरूवं) महसुत शाला संपन्न, सेवा (सि)यं शिमि- भी-ने (सिधं) ही माणस जोडीन, (तुरियं) मी ओई ५] म त२३ प्यान माया २ (चवलं) सत्वरे (वेइयं) मन, क्यन मने ४मथी भेजवीन (उबट्टवेह) सो पाभी ( पुरिससहस्सवाहिणि ) શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૧
SR No.006332
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages764
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size45 MB
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