SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 378
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे विविधा-अनेकपकाराः रोगातङ्काः-तत्र रोगाः श्वास१ कासर ज्वर३ दाह४ कुक्षिशूल५ भगंद६ रोझैs७ऽजीर्ण८ दृष्टिशूल९ मस्तकशूला१० ऽरोचका११ क्षिवेदना१२ कर्ण वेदना१३ कण्डूवेदनोदर १४ पीडा१५ कुष्ठादयः१६ प्रतिक्षणघोरवेदनाजनकाः, आतंकाः सद्योघातिनः हृदयशूलादयः, तान् सोहूं न समर्थोऽसीत्यर्थः। 'उच्चावए' उच्चावचान्नानाविधान् 'गामकंटए' ग्रामटकान् इन्द्रियसमूहपतिक्लान् 'बावीसं पडिसहोवसग्गे' द्वाविंशतिपरीषहोपसगोन्, तत्र परिसमंतात् मुमुक्षुभिः सह्यन्ते कर्मनिर्जरार्थ इति परीषहाः= क्षुधादयः, उपसर्गाः देवादि कृता उपद्रवास्तान् 'उद्दिण्णे' उदीर्णान उदया बलिका प्रविष्टान 'सम्म' सम्यक् प्रकारेण 'अहियासित्तए' अध्यासितुं सोढुं नालंन समर्थः, तस्माद् 'भुंजाहि' भुंक्ष्व तावत् हे जात ! मानुष्यकान् कामभोगान् ततःपश्चात भुक्तभोगीसन् श्रमणस्य३ यावत् प्रव्रजिष्यसि। ततः नहीं हो। इसी तरह इन्द्रियों के प्रतिकूल अनेक प्रकार के २२ (बावीस ) परिषह और उपसर्ग जन्य हःखों को उदय में आने पर तुम सहन करने में समर्थ नहीं हो। प्रतिक्षण धार वेदना को उत्पन्न करनेवाले श्वास, कास, ज्वरदाह, कुक्षि, शूल, भगंदर, अर्श, अजीर्ण, दृष्टिशूल, मस्तक शूल, अरुचि' अक्षिवेदना, कर्णवेदना, कडू वेदना, उदरपीडा और कुष्ठ आदि ये सब रोग हैं, तथा जिनके होने पर जीवन का हो शीघ्र अंत हो जाता है ऐसे हृदयशल आदि आतंक हैं। कर्मों की निर्जरा करने के लिये मोक्षाभिलाषी जन जो क्षुधा आदि के कष्टों को सहन करते हैं वे परीषह हैं और देवादिक द्वारा जो उन्हें कष्ट दिये जाते हैं वे उपसर्ग हैं। (भुंजहि ताव जाया माणुस्सए कामभोगे) इस लिये हे पुत्र ! हमारी बात मानों पहिले तो तुम मन माने मनुष्यभव संबन्धी જાતના બાવીસ (૨૨) પરિષહે અને ઉપસર્ગજન્ય દુઃખે ઉદય થશે ત્યારે તમે તેમને સહી શકશે નહીં દરેક ક્ષણે ભયંકર વેદના જનક શ્વાસ, કાસ, જવર દાહ, मुक्षिशुद्धी, २, मश; अपयो, दृष्टिशूल, भरत शर, मरुथि, मशिवहना, ४, વેદના, કઠુવેદન, ઉદરપીડા અને કુષ્ઠ વગેરે આ બધા રોગો તેમજ જેમના ઉત્પન્ન થવાથી જીવન એકદમ મૃત્યુ વશ થઈ જાય છે એવા હદયશૂલ વગેરે આતંકકારી રોગો છે. કર્મોની નિર્જરા કરવા માટે મોક્ષાભિલાષી લેકે ભૂખ વગેરેના કષ્ટ સહન કરે છે, તે પરીષહ છે, અને દેવતા વગેરેથી જે તેમને કષ્ટ આપવામાં આવે છે, ते ५ छ. (भुंजहि ताव जायामाणुस्सए कामभोगे) मेटला भाटे હે પુત્ર! અમારી વાત માને તમે પહેલાં તે ઈચ્છા મુજબ મનુષ્યભવના સમસ્ત શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૧
SR No.006332
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages764
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size45 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy