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________________ ३३४ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे परिषिच्यमाना, अतएव 'निवावियगायलट्ठी' निर्वापित गात्रयष्टिः-निर्वापिता शीतलीकृता गात्रयष्टि: शरीरं यस्याः सा तथा, 'उक्खेवणतालविंट वीयणगजणियवाएणं' उत्क्षेपणतालसन्तवीजनकजनितवातेन='उत्क्षेप्यते' इति उत्क्षेपणं, कर्मणि ल्युट् बाहुलकत्वात्, वोज्यमानमित्यर्थः यत् तालवन्तं-ताल. पत्रनिर्मितं-व्यजनकं तजनितेन वातेन-पवनेन, 'सफुसिएणं' सस्पृषता सोदकबिन्दुना जलप्लावितन्यजनकवीजनजनितपवनेनेति भावः, 'अतेउर परिजणेणं' अन्तःपुर-परिजनेन-सखीवर्गेण, 'पासासिया समाणी' आश्वासितागतमूर्छा. लब्धचेतनसंज्ञा सती, 'मुत्तावलि सन्निगासपवडंतअंसुधाराहि' मुक्तावली संनिकाशरपतदश्रुधाराभिः, नयन शुक्तिभ्यां मुक्तापङ्क्तय इव प्रपतन्त्यो या अश्रुधारा नेत्रजल विन्दुपरंपरा स्ताभिः 'सिंचमाणीपमोहरे' सिञ्चन्ती पयो. धरो, 'कलुणविमलदीणा' करुणविमनोदीना-करुणा-दुःखिता, विमनाः= शोकाकुलचित्ताः, दीना-सतप्ता, 'रोयमाणी' रुदती अश्रुपातं कुर्वती, 'कंद. उस पर छोडी गई उससे (निब्वावियगायलट्ठी) उस के शरीर में शान्ति आई। (इक्खेवणत्तालविटवीयणगणियवाएणं) उसी समय पंखा करने वाली दासिघोंने उस पर तालपत्र निर्मित पंखा दोरना प्रारंभ कर दियाउसकी हवा से (सफसिएणं) जो जल की छोटी२ बिन्दुओं से युक्त थी तथा (अंते उर परिजणेणं) अंतःपुर की सखी वर्ग के (आसासिया समाणी) अनेक विध आश्वासनों से उस की मूर्छा नष्ट हो गई और प्रकृतिस्थ होकर-अर्थात् लब्ध चेतना वाली बन कर (मुत्तावलिसन्निगासपाडत असुधाराहि) वह मुक्तावली के जैसे निकलते हुए आंसुओं की धारा से (सिंचमाणी पओहरे) अपने स्तनों को सिश्चित करने लगी-(कलण. विमलदीणा) और दुःखित शोकाकुल चित्त एवं तप्त होकर (रोयमाणी) भावी तेथी (निव्वावियगायलट्ठी) तेनां शरीरे शांति qणी. (उक्खेवणतालविदवियणगजणियबाएणं) यो ४२नारी सीमाये auथी मनेो ५। ४२१॥ भांडयो. तना पवनथी ( सफुसिएणं) २ पाणी नाना नाना ४९५ युत तो तेभ (अतेउरपरिजणेण) २४वासनी भने ४ सभी माना (आसासियासमाणी) मने विध मावासनोथी तेमनी भूछा ६२ 25 अने ते। प्रतिस्थ थयां-मर्थात तेभरे श येतन भेव्यु भने पछी (मु त्तावलि सन्निगासपवउंत अंसुधाराहिं) तेथे मातीमानी २भ टपत असुमाना धारामा (सिंचमाणी पओहरे) पाताना स्तनोन सियित ४२॥ सायi. (कलुण. विमल दीणा) मने भी आथित्त भने सतत न (रोयमाणी) २७१। શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૧
SR No.006332
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages764
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size45 MB
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