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________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी अ.१ टीका. सू.१७ अकालमेधदोहदनिरूपणम् २२९ 'चडगर' इति देशीयः शब्दः,तेषां चन्दैःसमूहैः, परिक्षिप्ता-संवेष्टिता, सब्धिट्टाए' सर्वद्धर्था छत्रादिकया राजचिह्नरूपया, सबजुईए' सर्वश्रुत्या आमरणादिना दीप्त्या, 'जाव' यावत् अत्र यावत् करणादिदं दृश्यम्--सर्ववले न सर्वसमुदायेन=पुरवासिसमूहेन सर्वादरेण सर्वविभूत्या समस्तो भया इति । 'दुंदु. भिनिग्धोसनादियरवेणं' दुन्दुभिनि?पनादितरवेण-अत्र दुंदुभि इत्युप लक्षणम् अन्येषामपि वाद्यानाम् निघोषः बाद्यवादनप्रयत्नजनितःशब्दः, नादितं ध्वनिमात्र, तद्रूपो रवः शब्दस्तेन सहिता, राजगृहे नगरे शृङ्गाटकत्रिकचतुष्कचत्वर० यावन्महापथेषु नागरजनेन अभिनन्द्यमाना २ यत्रैव वैभारगिरिपर्वतस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य 'वेभारगिरिकडगतडपायमुले' वैभारगिरिकटकतटपादमूले तत्र वैभागिरे : टकतटानि= एकदेशतटानि, पा. दाश्वतत्समीपवर्तिनो लघुपर्वताः तेषां यन्मुलं वृक्षलतादि परिघुतरमणीयप्रदेशाः तत्रारामेषु आरमन्ति-क्रीडां कुर्वन्ति जना माधवी वासन्तीलतागृहादिषु यत्र ते परिक्खित्ता) महा भटोंकायूथ छन्द जिसे संवेष्टित किये हुए हैं और जो अपनी (सबिट्टीए सव्वजईए जाव दुदभिनिग्घोसनादियरवेणं) समस्त राज्य चिह्नादिरूप छत्रादिऋद्धि से आभरण आदिकों की दीप्ति से तथा यावत् शब्द से मूचित किये गये समस्त बल से पुरवासिजनों के समूह से समस्त प्रकार की शोभा से दुइंभि आदिसमस्त प्रकार के निर्घोष सेनिनाद से (रायगिहे नयरे सिंघाडगतिगच उक्कचच्चर जाव महापहेसु नगर जणेणं अभिनंदिजमागार) राजगृह नगर में श्रृंगाटक त्रिक, चतुष्क, चत्वर आदि महापथों में नगर निवासी मनुष्यों द्वारा वार२ अभिनंदित होतो हुई (जेणामेव वेभारगिरिपब्बए तेणामेव उवागच्छद) जहां वैभार गिरिपर्वत था वहाँ पहुँची (उपगच्छित्ता वेभार गिरिकडगतडपायमूले आरामेसु य, समूड ना यारे त२३ छ भने पोतानी (सचिए सव्वज्जुईए जाब दुदंभि निग्योसनादियरवेणं) समस्त यिन३५ छत्र बोरे ऋद्धिथी, माम२९ वगैरेनी દીતિથી તેમજ “યાવતું પદ વડે સૂચવાએલા સમસ્ત બલથી નગરજનોના સમૂહથી, स माथी मि पणेरेना या निधेषियी निहानथी, (रायगिहे नयरे सिंधा डगतिग व उपक वच्चर जाव महापहेप्नु नगरजणेगं अमिनादेजमाणा२) રાજગૃહનગરમાં શૃંગાટક, ત્રિક, ચતુષ્ક, ચત્ર વગેરે મહાપમાં (રાજમાર્ગોમાં) नागरिश २ वारवार अभिनहित थतi पाणीपी (जेगामेच वे भारगिरिपत्रए तेगामेव उबागच्छद) या वैमा२ पति तो त्या पडल्या. उद्यागच्छित्ता वेभा. रगिरिकडगतडपायमूले आरामेसु, य उजाणेसु य, काणणेसुय य वणेसुय, શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૧
SR No.006332
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages764
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size45 MB
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