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________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणीटीका सू. १३ अकालमेघदोहदनिरूपणम् १८३ ञ्जलिं 'कट' कृत्वा, जयेन-जयशब्देन, विजयेन-विजयशब्देन 'बद्धाति' वर्ध. यन्ति श्रेणिकमभिनन्दयन्ति, 'वद्धावित्ता' वर्धयित्वा, एवमवदन्-एवं खलु हे स्वामिन् ! 'किपि' किमपि अम्ति यद् 'अज' अद्य= अस्मिन् दिवसे धारिणी देवी अबरुग्णा अवरुग्णशरीरा यावद् आर्तध्यानोपगना ध्यायति आर्तध्यानं करोति। ततः खलु स श्रेणिको राजा तासामङ्गपरिचारिकाणामन्तिके इममर्थ= धारिणी देव्या-आर्तध्यानरूपं श्रुत्वा निशम्य हृद्यवधार्य 'तहेव' तथैव, संभ्रान्तः सन् 'सिग्छ' शीघ्र=मनोगतिसहितं, 'तुरियं' त्वरितम्='अधुनैव गम्यते' इति वा व्यापारयुक्तं, 'चवलं' चपलं कायचेष्टासहितं 'वेगियं' वेगितं गत्यवरोध रहितम्, यत्रैव धारिणीदेवी तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य धारिणी दवीमवरुग्णा. दोनों हाथों को अंजलिबद्धकर और उन्हे मस्तक पर रखकर राजा को प्रणाम किया। बाद में जय विजय शब्दों द्वारा उन्हें बधाई दी। (वद्ध - वित्ता एवं बयासी) बधाई के बाद फिर उन्होंने राजा से ऐसा कहा-(एवं खलु सामी किं पि अज्ज धारिणीदेवी ओलुग्गा अोलुग्गसरीरा जाव अदृझाणोवाया शिवायई) हे स्वामिन् ? आज हम आपके पास कुछ कहनेको आई हैं-धारिणीदेवी आज अबरुग्ण एवं अवरुग्ण शरीर वाली होकर अनमनी बैठी हुई हैं और आतध्यान में मग्न हैं आदि२ (तएणं से सेणिए राया तासिं अगपडियारियाणं अंतिए एयमटुं सोच्चा णिसम्म तहेव संभंते ममाणे सिग्धं तुरियं चवलं वे यं जेणेव धारिणो देवी तेणेव उवागच्छइ। श्रेणिक राजा उन अगपरिचारिकाओं के मुख से इस बात को मुनकर और अच्छी तरह उसे हृदय में आधारित कर उसी तरह संभ्रान्त होकर शीघ्र ही अभी जाता है इस तरह वचन कहते हुए चपलरूप से बिना किसी रुकावट के जहां वह धारिणी देवी थी वहां जएणं विजएणं रद्धावेंति) धन तमामे भA मस्त 40 नमसर या. त्या२।४ न्यविय शोथी भने वधाव्यi. (बद्धाविना एवं क्यासी) वधाच्या मा तेगा. ३०तने उधु (एव खलु मामी किं पि अज धारिणी देवी प्रोल गा अोलग्गसरीरा जाव अझाणोवगया झियायइ) स्वाभि! ममे आपने કંઇક નિવેદન કરવા માટે આવ્યાં છીએ. ધારિણદેવી અવરુષ્ણ અને કૃશશરીરવાળી થઈને અન્યમનસ્કની જેમ બેઠાં છે, અને એકદમ ચિંતામગ્ન થઈને આર્તધ્યાન કરે છે. (तएणं से सेणिए राया तासि अंग पडियारियाणं अतिए एयमद्रं सोचा णिसम्म तहेव संभंते समाणे सिग्धं तुरियं चवलंबे इयं जेणेव धारिणी देवी तेणेव उवागच्छद) અંગ પરિચારિકાઓના મઢથી આ વાત સાંભળતાં તે જ શ્રેણિક રાજાએ તે વાતને મનમાં સારી પેઠે ધારણ કરીને વ્યાકુળતાથી કોઈપણ સ્થાને રોકાયા વગર ધારિણી શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૧
SR No.006332
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages764
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size45 MB
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