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________________ १४० ___ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे प्रेक्षणीयरूपां, अधिकं-बहु प्रकारकं यथास्यात्तथा प्रेक्षणीयानि-दर्शनीयानि रूपाणि श्वेतपीतादयो वर्णा यस्यां सा तथा ताम्, अधिक मनोहरतया दर्शन योग्यामित्यर्थः 'महग्ध-वर-पट्टणुग्गय महाघ-पत्तनोद्गतां, वरपत्तने उद्गता इति वरपत्तनोद्गता, महार्धा चासौ वरपत्तनोद्गता इति सा तां श्रेष्ठ नगरे उत्पन्नां तत्रैव सीवितां बहुमूल्यामित्यर्थः। 'सण्डबहुभत्तिसयचित्तहाणं' श्लक्ष्ण बहुभक्ति शतचित्रस्थानां, श्लक्ष्णानि-मनोहराणि-बहुभक्तिशतानिबहुमकाराणि विन्यासशतयुक्तानि यानि चित्राणि तेषां स्थान स्थिति; सत्ता यस्यां सा तथा तां विचित्रचित्रचित्रितामित्यर्थः, 'ईटा-मिय-उसम-तुरय-गरमगर-विहग-बालग-किन्नर-रुरु-सरभ-चमर-कुंजर-वलय-पउमलय-भत्ति चित्तं' ईहा-मृग-ऋषभ-तुरग-नर-मकर-विहग-व्यालक-किन्नर-रुरु--सरभचमर-कुञ्जर-बनलता-पद्मलता भक्तिचित्रां, तत्र-'ईहामृगाःका'भेडिया' इति भाषायाम, ऋषभाः बलीवः, तुरगा अचाः, नरा-मनुष्याः मकरा: जलजन्तु-विशेषाः, विहगा: पक्षिणः, व्यालकाः सर्पाः, किन्नरा व्यन्तरमगर, विहग, वालग, किंनर, रुरु, सरम, चमर,कुंजर, वणलय, पउमलय भत्तिचित्त) जब भृत्वजन (नौकर) इन आसनों को स्थापित कर चुके तब राजाने इन पर (जवणियं अंछावेइ) जवनिका (पर्दा) डलवादिया। यह पर्दा नानामाणिक्य आदि मणियों से और रत्नों से मुशोभित था। अधिक प्रेक्षणीय रूपवाला था। श्रेष्ठ नगर से बना कर यह मंगाया गया था तथा वहीं पर इसे सिलाया था। इसमें मनोहर तथा अनेक प्रकार की रचना वाले चित्र बने हुए थे। अर्थात् यह विचित्र चित्रों से मंडित था। ईहामृग-मेडिया-ऋषभ-बैल-तुरग-घोडा नर-मनुष्य मकर-जलजन्तु विशेष विहग पक्षी व्यालक-सर्प किन्नर-व्यन्तर जाति के देव रुरु-मृग वालग, किंनर, रुरु, सारभ, चमर जर, वणलय, पउमलय, भत्तिचित्त) જ્યારે નેકરોએ આ બધા આસને ગોઠવી દીધાં ત્યારે રાજાએ તેના ઉપર પડદે (જવનિકા) નંખાવી દીધા. આ પડદે અનેક જાતના માણેક, મણિઓ અને રત્નોથી શેભતે હતા. તે પ્રેક્ષણીય તેમ જ સુંદર હતે. ઉત્તમ નગરમાંથી તે બનાવડાવી મંગાવ્યું હતું અને ત્યાં જ તેને સિવડાવરાવ્યું હતું. આ પડદા ઉપર ચિત્તને આક"નારા તેમજ અનેક જાતની રચનાવાળા ચિત્રો હતાં એટલે કે તે રંગબેરંગી ચિત્રોથી शोमतो तो. ते ५ो छहाभा, १२, पम-म-धा, नर-माणुस,-भ७२- तन्तु विशेष,-विडस-पक्षी,-व्यास-साप, नर-व्य-त२ तिनाव, २२-भृग શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૧
SR No.006332
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages764
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size45 MB
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