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________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका. सू. ७ स्वप्नफलनिरूपणम् ९७ परमसौमनस्थिता=अत्युत्कृष्टशुभमनोभावयुक्ता, हरिसवस विसप्पमाणहियया' हर्षवशविसर्पहृदया=आनन्दोल्लासप्रफुल्लितहृदया 'धाराहयकलंब पुप्फगं पिव समूससियरोमकृवा' - धाराहतकदम्बपुष्पमिव समुच्यसितरोमकूपा - धारहतं जलधर-जलधाराताडितं कदम्बपुष्पमित्र समुच्छ सिताः स्थूलतां गता रोमकपाः = रोम निर्गम स्थानानि यस्याः सा तथोक्ता, यथा जलधर-धाराभिराहतं कदम्बकुसुमं विकसितके सरव्याप्तं भवति तथा स्वप्नदर्शनेन साऽपि समुद्गतरोमकूपा जाता, एवम्भूता सा तं स्वनम् 'ओगिप्ट ' अवगृह्णाति - अवग्रहादिना मनोविषयीकरोति, अवगृह्य = संस्मृत्य 'सयणिज्जाओ उट्ठेइ' शयनीयत उत्तिष्ठति, उत्थाय 'पायपीढाओ पच्चरुes' पादपीठात्मत्यवरोहति = चरण निक्षेपपट्टादधस्तादवतरति, प्रत्यवरुह्य 'अतुरियमचवलम संभंताए' अत्वरितमचपलमसम्भ्रान्तया अत्वरितं =शीघ्रता रहितम्, अचपलं = देहचाञ्चल्यवर्जितं यथास्यात्तथा श्रतएव असम्भ्रान्तया= अत्रस्तया स्खलन हीनया 'अविलंबियाए' अविलम्बितया = अनवरुद्धया 'रायहससरिउत्कृष्ट शुभ मनोभाव से युक्त हो (हरिसवस विसप्पमाण हियया) अत्यन्त हर्ष के उल्लास से प्रफुल्लित हृदय वाली हो कर (धाराहय कलंबपुष्फगं पिच समूस सियरोमकूवा ) मेघ की धारा से आहत कदम्ब पुष्प की तरह अतिस्थूल रोमकूप वाली बन चुकी तब उसने (तं सुमिणं ओगिह) उस स्वप्न का अवग्रह रूप से विचार किया। फिर ईहा अवाय आदि रूप से उसका विशेषर और भी चिन्तवन किया । (ओगिण्हित्ता) चिन्तवन कर पश्चात् वह - ( पायपीढाओ सर्याणिजाओ) शय्या से (उई) उठ गई । (उता) उठकर फिरवह (पायपीढाओ पच्चोरुहइ) पादपीठ से नीचे उतरी (पच्चरुहित्ता) नीचे उतर कर बाद में वह (अतुरियमचवल मसंभंताए - अविलंबियाए रायहंससरिसीए गईए) शीघ्रता एवं देह की चपलता से रहित होकर विना किसी हिचकिचाट के अनवरुद्ध थाने भूषवदुषेविझासथी अहुक्षित हृध्यवाणी थई ने ( धाराहयकलंच पुष्फा गंपिवसम्ससियमकुवा ) भेधनी धाराभोवडे आडत उहां पुण्पनी प्रेम घूमन स्थूल शेभयवाणी (रोमांचित थई गई. त्यारे तेथे (तं सुमिणं अंगिण्डइ) ते स्वप्न ઉપર અવગ્રહરૂપથી વિચાર કર્યાં. પછી ઇંડા અવાય વગેરે રૂપથી વિશેષ તેનું ચિંતન 5. (ओगिण्हत्ता) चिंतन अर्थाच्छी ते (सयणिज्जाओ) शय्या उपरथी ( उट्ठेई) हीने मेसी गई. (उड्डित्ता) मेसीने ते (पायपीढ़ाओ पच्चारूहइ) पापी उपरथी नाथे अंतरी, (पञ्च्चोरुहिता) नीचे उतरीने ते (अतुरियमचवलमसंभताएअबिलंबियाए रायहंसस रिसीए गइए) हेडुनी यंथणता, रहित थह ने धीभेधीभे सय वगर ते अनवरुद्ध न्हुसीनी लेवी यादथी ( जेणामेव से लिए राया શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર ઃ ૦૧ "
SR No.006332
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages764
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size45 MB
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