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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०४१ उ.१६९.१९६ शु. शु. रा. कलियो० सिद्धत्वम् ७६९ वेमाणिया' यावच्छुक्ललेश्या शुक्लपाक्षिक राशियुग्म कल्योज वैमानिकाः यायपदेन कृष्णलेश्य नीललेश्य कापोतलेश्य तेजोलेश्य पदूमलेश्य शुक्लपाक्षिक कृतयुग्मत आरभ्य शुक्लपाक्षिक राशियुग्म कल्योज वैमानिकान्तानांपूर्ववचिना संग्रहो भवति इति । 'जाव जइ सकिरिका तेणेव भवग्गहणेणं सिझंति जाव अंतं करेंति' यावत् यदि सक्रिया स्तेनैव भवग्रहणेन सिद्धयन्ति यावदन्तं कुर्वन्ति ? अत्र प्रथम वायत्पदेन प्रथमोदेशकीयः 'यदि सक्रिया' एतत्पूर्वतन संपूर्णस्य पकरणस्य संग्रही भवति । द्वितीय यावत्पदेन बुद्धचन्ति मुच्यन्ते परिनिर्वान्ति सर्वदुःखाना मित्यस्य ग्रहणं भवतीति सक्रियाः सर्वे तेनैव भवग्रहणेन सिद्धयन्तीत्यादि प्रश्ना, उत्तरमाहवाले शुक्लपाक्षिक वैमानिक 'जाव जइ सकिरिया' यावत् यदि वे सक्रिय है तो क्या 'तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झति' उसी भव से सिद्ध होते हैं 'जाव अंतं करेंति यावत् समस्त दुःखों का अन्त करते हैं? यहां प्रथम यावाद से ऐसा पाठ गृहीत हुआ है कि राशियुग्म में कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, तेजोलेश्यावाले, पनलेश्यावाले कृतयुग्म राशिप्रमाण प्रमित, व्योजराशि प्रमाण प्रमित, द्वापरयुग्मराशिप्रमाण प्रमित एवं कल्पोज राशिममाण प्रमित शुक्लपाक्षिक तक के वैमानिकदेव हैं वे क्या उसी भव ग्रहण से सिद्ध होते हैं-यावत्-वुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिर्वात होते हैं और सर्व दुःखोंका अन्त करते हैं ? 'जाव जइसकिरिया' इस पाठ में जो यावत्पद आया है उससे सक्रियपद के पूर्व में आगत जो पाठ है वह सब गृहीत हुआ है। यह पाठ इसी शतक के प्रथम उद्देशक में आ चुका है। इस 'जाव जइ सकिरिया' यावत् ने तो लिया सहित डाय तो शु तेणेव भवग्गहणेणं सिझति' मे मम सिद्ध थाय छ १ 'जाव अंत करेंति' यापत् સમસ્ત દુઃખોનો અંત કરશે ? અહિયાં પહેલા યાવન્મદથી એ પાઠ ગ્રહણ કરાયો છે કે રાશિયુમમાં કૃષ્ણલેશ્યાવાળા નીલેશ્યાવાળા કાપતલેશ્યાવાળા તેશ્યાવાળા, પદ્દમલેશ્યાવાળા જે કૃતયુગ્મ રાશિપ્રમાણુ પ્રમિત, એજ રાશિ પ્રમાણવાળા, દ્વાપરયુગ્મ રાશિપ્રમાણવાળા અને કલ્યાજ રાશિપ્રમાણવાળા, શુકલપાક્ષિક સુધીના વૈમાનિક દે છે, તેઓ શું એજ ભવગ્રહણથી સિદ્ધ થઈ જાય છે? યાવતુ બુદ્ધ થાય છે? મુકત થાય છે? પરિનિર્વાત થાય છે? मन स माने। 'तरे छे १ 'जाव जइ सकिरिया' ॥ ५४मा યાવત્પદ આવેલ છે, તેનાથી સક્રિય એ પદની પહેલાં જે પાઠ આવેલ છે. તે સઘળે પાઠ ગ્રહણ કરાવે છે, આ પાઠ આ શતકના પહેલા ઉદેશામાં
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શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૭