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________________ भगवतीसूत्रे मुहूर्ताम्यधिकानि, इदं च कृष्णलेश्य संज्ञिपञ्चेन्द्रियावस्थानं सप्तमपृथिव्युत्कृष्टस्थिति पूर्वमनपर्यन्तवत्तिनं च कृष्णले श्या परिणाममाश्रित्य कथितमिति । 'एवं ठिईए वि' एवं स्थितावपि एवं संस्थानवदेव स्थितौ अपि जघन्येनकै समयमुस्कपण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि । 'नवरं ठिईए अंतो मुहुत्तममहियाई न भन्नति' नवरं-केवलं स्थितौ अन्तर्मुहूर्ताभ्यधिकानि, अबस्थानं पूर्व भवपर्यन्तवर्तीकालोगृहीतः आयुष्कं तु न तदपेक्षया अतोऽन्तर्मुहूर्तमिह न कथितमिति अन्तर्मुहर्ताभ्यधिकानि न भण्यन्ते । 'सेसं जहा एएसिं चेव पढमे उद्देसए जाव अणतखुत्तो' शेषमवस्थानस्थित्यतिरिक्त सर्वमपि यथा एतेषां संज्ञिपश्चेन्द्रियाणामेव चत्वारिंउत्कृष्ट से एक अन्तर्मुहूर्त अधिक ३३ सागरोपम का है । यहां जो इसका काल कहा गया है वह सप्तम पृथिवी के नारक की उत्कृष्ट स्थिति और पूर्वभव पर्यन्त वर्ती कृष्णलेश्या के परिमाण को आश्रित करके कहा गया है। ‘एवं ठिईए वि' संस्थान के जैसे ही स्थिति भी जघन्य से एक समय की और उत्कृष्ट से ३३ सागरोपम की है यहां एक अन्तर्मुहूर्त अधिक नहीं कहना चाहिये । अर्थात्-अवस्थान में पूर्वभव पर्यन्तवर्ती काल गृहीत हुआ है । इसलिये वहां एक अन्तर्मुहर्त की अधिकता कही गई है परन्तु आयुष्क में यह अपेक्षा होती नहीं है। इसलिये यहां अन्तर्मुहूर्त की अधिकता नहीं कही है। 'सेसं जहा एएसि चेव पढमे उद्देमए जाव अणंतखुत्तो' इस प्रकार अवस्थान और स्थिति के अतिरिक्त और सब कथन इन संज्ञिांचेन्द्रियों के सम्बन्ध में ४० वे शतक के प्रथम उद्देशक में जैसा कहा गया है वैसा ही यहां भी અંતમુહૂર્ત અધિક ૩૩ તેત્રીસ સાગરેપમાને છે. અહિયાં જે આ પ્રમાણે તેઓને કાળ કહેલ છે, તે સાતમી પૃથ્વીના નારકની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ અને પૂર્વભવ પર્યન્તમાં રહેલ કૃણલેશ્યાના પરિણામને આશ્રય કરીને કહેલ છે. ‘एवं ठिईए वि' संस्थानना ४थन प्रभारी स्थिति ५४ धन्यथी । સમય અને ઉત્કૃષ્ટથી ૩૩ તેત્રીસ સાગરોપમની છે. અહિયાં એક અંતમુહુર્તનું અધિકપણું કહેલ નથી. અર્થાત્ અવસ્થાનમાં પૂર્વભવ પર્યત્વતિકાળ ગ્રહણ થયેલ છે. તેથી ત્યાં એક અન્તર્મુહૂર્તનું અધિકપણું કહ્યું છે, પરંતુ આયુર્થકમાં તે અપેક્ષા રહેતી નથી. તેથી અહિયાં એક અંતર્મુહુર્તનું अधिया डेस नथी. 'सेस जहा एएसिं चेव पढमे उद्देसए जाव अणतखुत्तो' । शत अवस्थान मने स्थितिना थन शिवाय બાકીનું સઘળું કથન આ સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિયના સંબંધમાં ૪૦ ચાળીસમા શત શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૭
SR No.006331
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 17 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages803
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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