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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०४० अ.श.१ कृ.कृ. संक्षिपञ्चन्द्रियोत्पातः ६३७ पोक्तस्तथैव उद्वर्तना निस्सरणम् उदृत्य गमनमपि तेषां चतसृष्वपि गतिषु नैरयिक तिर्यग्-मनुष्य-देवेषु भवतीति भावः, न कथइ पडि सेहो' न कुत्रचिदपि पतिषेधः 'जाव अणुत्तरविमाण त्ति' यावदनुत्तरविमानमिति, नारकादि चतुतिष्वपि पञ्चेन्द्रियाणा मुद्वर्तना मवति अनुत्तरविमानपर्यन्तं कस्यापि स्थानस्य प्रतिषेधो नास्तीति । 'अह मंते ! सव्वे पाणा जाव अणंतखुत्तो' अथ भदन्त ! सर्वे पाणा यावत् सर्वे सत्चाः कृतयुग्मकृतयुग्म संज्ञिपञ्चेन्द्रियतया कि समुत्पन्न पूर्वा ? हे गौतम ! सर्वे पाणाः सर्वे भूनाः सर्वे जीवाः सर्वे सत्ताः कृतयुग्मकृतयुग्मसंज्ञिपश्चेन्द्रियतया असकृत् अथवा अनन्तकृत्वः समुत्पन्नपूर्वा इति । एवं सोलसमु वि जुम्मेसु भाणिय
और मारणान्तिक समुद्घात से समवहत हुए विना भी मरते हैं। 'उवट्ठणा जहेव उववाओ' इन में उपपात के जैसे उदर्तना होती हैं। अर्थात् इनका चारों गतियों में उपपात होता है और चारों गतियों के जीवों का इनमें उत्पाद होता है । 'न कत्थई' पडिसेहो' इन्हें आनेजाने की कहीं पर भी रूकावट नहीं है। 'जाव अणुत्तरविमाणत्ति' यावत् ये अनुत्तर विमानों तक जाते हैं अर्थात् वहां तक इनका उत्पाद होता है। 'अह भंते ? सम्वे पाणा जाव अणंतखुत्तो' हे भदन्त ! क्या समस्त प्राण यावत् समस्त सत्व, कलयुग्म कृतयुग्मसंज्ञिपचेन्द्रिय रूप से उत्पन्न हो चुके हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'सव्वे पाणा सव्वे भूआ सव्ये जीवा सम्वे सत्ता' हे गौतम ! समस्त प्राण, समस्त भूत, समस्त जीव और समस्त सत्व असत-वारंवार अथवा अनन्तयार कृतयुग्मकृतयुग्म संज्ञीपचेन्द्रिय रूप से उत्पन्न हो चुके हैं। 'एवं सोलससु वि जुम्मसु समुद्धात या विना ५Y भरे . 'उक्टुणा जहेव उववाओ' તેઓને ઉપપાતની જેમ જ ઉદ્વર્તન પણ હોય છે. અર્થાત્ તેઓને ચારે ગતિમાં ઉપપાત હોય છે. અને ચારે ગતિના જીવન तमाम पाहाय छे. 'न कथइ पडिसेहो तमान स भा ४यां ५५ ३४१५ यती नथी. 'जाव अणुत्तरविमाणत्ति' यावत तो मनुत्तर विमाने। सुधी १५ छे. अर्थात त्या सुधी तमान! त्या डाय छे 'अहभंते ! सम्वे पाणा जाव अणतखुत्तो' हे भगवन सधा प्रासघासत्वा, तयुम, કૃતયુગ્મ સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય પણાથી ઉત્પન્ન થઈ ચુક્યા છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभुश्री ४ छे -'सव्वे पाणा सव्वे भूआ सव्वे जीवा सम्वे सत्ता' गीतम! સઘળા પ્રાણ સઘળા ભૂતે, સઘળા જી. અને સઘળા સ, અસકૃત–વારંવાર અથવા અનંતવાર કૃતયુગ્ય કૃતયુગ્મ સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય પણુથી ઉત્પન્ન થઈ ચુક્યા
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૭