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________________ प्रमेयचन्द्रिका तरीका श०४० म. श.१ कृ. कृ. संक्षिपञ्चन्द्रियोत्पातः ६२९ संक्षिपञ्चेन्द्रियाः मोहनीयकर्मप्रकृतेरुदयिनो भवन्ति, उपशान्तमोहादयस्तु संशिपश्चेन्द्रिया अनुदयिनो भवन्तीति । 'सेसाणं सत्तण्ह वि उदई नो अनुदई' शेषाणां मोहनीयव्यतिरिक्तानां सर्वेषामपि कर्मणां संज्ञिपञ्चेन्द्रिया उदयिन एव भवन्ति न तु अनुदपिनो भवन्तीति । वेदनोदययोः को भेदः ? इत्याह-वेदकत्वमनुक्रमेणोदीरणाकरणेन च उदयागतानां कर्मणामनुभवनम्, उदयस्तु अनुक्रमागतानां कर्मप्रकृतीना मनुभवनमिति भेद इति । 'नामस्स गोयस्स य उदीरगा नो अणु. दीरगा' नाम्नो गोत्रस्य च कर्मणः सर्वे संज्ञिपञ्चन्द्रिया अषायान्ता उदीरका एवं भवन्ति न तु अनुदीरका भवन्तीति । 'सेसाणं छह वि उदीरगा वा अणुदीरगा वा' शेषाणां नामगोत्रवर्जानां षण्णामपि ज्ञानावरणीयादीनां यथासंभवम् उदीरका संपराय गुणस्थान तक के हैं वे तो मोहनीय कर्म के उदयवाले होते हैं। और उपशान्त मोहवाले हैं अथवा क्षीणमोहवाले हैं वे मोहनीय कर्म के उदयवाले नहीं होते हैं। 'सेसाणं सत्तण्ह वि उदई नो अनुदई' मोहनीय कर्म के सिवाय शेष सात कर्मप्रकृतियों के ये उदयवाले ही होते हैं अनुदयवाले नहीं होते । वेदना और उदय में क्या अन्तर है ? उत्तर -अनुक्रम से अथवा उदीरणा करण से उदय में आये हुए कर्मों का अनुभव करना सो वेदकता है और अनुक्रम से उदय में आये हुए कर्मों का अनुभवन करना वह उदय है । 'नामस्स गोयस्स य उदीरगाणो अणुदीरगा ये समस्त संज्ञीपश्चेन्द्रिय जीव नामकर्म के और गोत्र कर्म के क्षीणमोह गुणस्थान तक उदीरक होते हैं अनुदीरक नहीं होते हैं। 'सेसाण छह वि उदीरगा था.अणुदीरगा वा' षाकी के छह कर्मप्रकृ. तियों के नामगोत्र को छोड़कर ज्ञानावरणीय आदि ६ कर्मप्रकृतियों के જે સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય જીવો સૂમ સંપરાય ગુણ સ્થાન સુધીના છે, તેઓ તે મોહનીય કર્મના ઉદયવાળા હોય છે. અને ઉપશાન્ત મેહવાળા હોય છે. તેઓ भाडनीय भना हयाणा होता नथी. 'सेसाण सत्तण्ह वि उदई नो अणुदई' મોહનીય કર્મ શિવાય બાકીની સાત કર્મ પ્રકૃતિના તેઓ ઉદયવાળા જ હોય છે, અનુદયવાળા હોતા નથી. વેદન અને ઉદયમાં શું અંતર છે ? ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે–અનુકમથી અથવા ઉદીરણા કરણથી ઉદયમાં આવેલા કર્મોને અનુભવ કરે તે વેદનપણું છે અને અનુકમથી ઉદયમાં આવેલા કર્મોનો अनुभव ४२३ ते ६य छे. 'नामस्स गोयस्स य उदीरगा णो अणुदीरगा' मा સઘળા જી નામ કર્મના તથા ગોત્ર કર્મના ક્ષીણ મેંહગુણ સ્થાન સુધી ઉદીરક શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૭
SR No.006331
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 17 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages803
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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