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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३८ कृ.कृ. चतुरिन्द्रियजीवोत्पातः ६१७ एवमेव भवसिद्धिकघटितानि चत्वारि शतानि, तथा अभवसिद्धिकघटितानि चत्वारि शतानि चेति, सर्वसंकलितानि चतुरिन्द्रियैरपि कर्तव्यानीतिभावः । अत्र यद् वैलक्षण्यं तदाह-'नवरं' इत्यादि, नवरं केवलं विशेषस्त्वयम् यत् एषां चतुरिन्द्रियाणाम् 'ओगाहणा जहन्नेणं अंगुळस असंखेम्जइभार्ग' अवगाहना जघन्ये. नांगुलस्यासंख्येयभागममिता, 'उक्कोसेणं चत्तारि गाउयाई' उत्कर्षेण चतस्रो गव्य॒तयः, इति चतुर्गव्य॒ति पमिता चतुःक्रोशप्रमाणा उत्कर्षेण तादृशचतुरिन्द्रियाणामवगाहना प्रोक्तेति भावः । एषां 'ठिई जहन्नेणं एक समयं स्थितिघ. न्येन एक समयं यावत् , 'उको सेणं छम्मासा' उत्कर्षेण स्थितिः षण्णासान् यावत् एतदेव वैलक्षण्यम् , 'सेसं जहा बेंदियाणं' शेषम्-अवगाहना स्थित्यतिरिक्त सर्व लेश्या घटित शत, कापोतलेश्या घटिन शत, भवसिद्धिक घटित चार शतक और अभवसिद्धिक टिन चार शतक इस प्रकार से सब शतक १२ हो जाते हैं । ये १२ शत चौइन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में हैं। पूर्व शतक की अपेक्षा जो यहां अन्तर आता है उसे 'ओगाहणा जहन्नेण अंगुलस्स असंखेन्जा भाग उरकोसे ण चत्तारि गाउयाई' इस सूत्रपाठ द्वारा प्रकट किया गया है-यहां जघन्य से अवगाहनाशरीर की ऊचाई अंगुल के असंख्यात वें भाग प्रमाण है और उस्कृष्ट से चार कोश की है । 'एवं ठिई जहन्नेण एक्क समय उक्कोसेण छम्मासा' इनकी जघन्य स्थिति एक समय की और उत्कृष्ट स्थिति छहमास की हैं । 'सेस जहा बेइंदियाण' अवगाहना और स्थिति के अतिरिक्त और सब कथन जेला दो इन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में कहा ભવસિદ્ધિકવાળા ચાર શતક અને અભાવસિદ્ધિવાળા ચાર શતકો આ રીતે સઘળા મળીને ૧૨ બાર શતકે થઈ જાય છે. આ બાર શતકે ચાર ઇન્દ્રિય જીના સંબંધમાં કહેલ છે. પહેલા શતકના કથન કરતાં આ કથનમાં જે अतर भाव छ, ते 'ओगाहणा जहण्णेण अंगुलस्स असंखेज्जइ भाग, उक्कोसेण चत्तारि गाउयाइ" म। सूत्रद्वारा प्रसट रेस छे. मलियां धन्यथा साना શરીરની ઉંચાઈ આંગળના અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણવાળી છે. અને ઉત્કૃષ્ટ भाना या२॥ ४ . 'एसो ठिई जहण्णेण एकं समय उनकोसेण छम्मासा' सामनी धन्य स्थिति से समयी अने. त्या स्थिति छ भासनी ही छे. 'सेन जहा बेईदियाण' अवगाहना भने स्थितिना ४थन કરતાં બાકીનું સઘળું કથન બે ઈન્દ્રિયવાળા જેના સંબંધમાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે, તેજ પ્રમાણેનું છે. भ० ७८ શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૭
SR No.006331
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 17 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages803
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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